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212 : विवेकविलास
शनैश्चरदिने
कालो
घटिकानां
चतुष्टयम् ।
घट्यो जिनैः समाः स्वास्थ्यं मोहः षट् सार्धवासराः ॥ 222 ॥ शनिवार के दिन काल की 4 घड़ियाँ, अपरान्त की 24 घड़ी और मूर्च्छा के साढ़े छह दिन बताए गए हैं।
कालोऽन्त्येऽर्धे शनेरन्त्या घटी जीवेऽपरान्तकः ।
काल एव भवेन्नित्यं सर्वप्रहरकान्तरे ॥ 223 ॥
यह भी स्मरणीय है कि शनिवार को अन्तिम अर्द्ध भाग काल की और गुरुवार को अन्तिम घड़ी अपरान्त की है जबकि अविराम सब प्रहर के अन्त में काल होता है। अपरान्तादीनां लक्षणमाह
नाभिदेशे तले स्पष्ट निर्दग्धस्येव वह्निना ।
दष्टस्य जायते स्फोटो ज्ञेयो ऽनेनापरान्तकः ॥ 224 ॥
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विष से पीड़ित मनुष्य के नाभिप्रदेश के नीचे के भाग में यदि आग से दग्ध
जैसा फोड़ा प्रकट हो तो उस लक्षण से अपरान्त का ज्ञान - करना चाहिए । अनन्तो दक्षिणाङ्गेक्षी वासुकियमवीक्षकः ।
तक्षकः श्रवणस्पर्शी नासां कर्कोटकः स्पृशेत् ॥ 225 ॥
अनन्त नामक नाग दाहिनी ओर देखता है; वासुकी बायीं ओर, तक्षक कान
को स्पर्श करता है जबकि कर्कोटक नाक को छूता है ।
पद्मः कण्ठतटस्पर्शी महापद्मः श्वसित्यलम् ।
शङ्खो हसति भूप्रेक्षी कुलिको वामवेष्टकः ॥ 226 ॥
पद्मनाग कण्ठ को स्पर्श करता है; महापद्म बहुत श्वास छोड़ता है; शङ्ख भूमि की और देखकर मुस्कुराता है जबकि कुलिंक बायीं ओर वेष्टन करता है । विषकालं व्याप्तिश्च लक्षणमाह
विषं दंशे द्विपञ्चाशन्मात्रा *स्तिष्ठेत्ततोऽलिके । नेत्रयोर्वदने नाडीष्वथो धातषु सप्तसु ॥ 227 ॥
शरीर में विष सदैव दंशस्थल पर 52 मात्रा तक रहकर फिर कपाल, आँख, मुँह, नाड़ियों और सप्त धातु में व्याप्त होता है। "
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मात्रा से
आशय सामान्यतया क्षण होता है । छन्दः शास्त्र के अनुसार एक ह्रस्व स्वर को उच्चारण करने में जितना लगने वाले समय को एक मात्रा कहा जाता है।
** अग्निपुराण में आया है- विषरोगाश्च सप्त स्युर्धातोर्धात्वन्तराप्तितः । विषदंशो ललाटं यात्यतो नेत्रं ततो मुखम् ॥ आस्याच्च वचनी नाड्यौ धातून्प्राप्नोति हि क्रमात् । (अग्नि. 294, 41 )