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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लास: : 209
वारों को चौघड़िया के सन्धिकाल में विष का उदय धारण करता है। उसके शरीर का वर्ण श्वेत होता है।
अहर्निशमियं वेला ख्याता विषमयी किल ।
तदादौ विषमाग्नेयं माहेन्द्रं मध्यमे पुनः ॥ 204 ॥ वारुणं पश्चिमे भागे तत्राद्यमतिदुःखदम् । कष्टसाध्यं परं साध्यं भवेत्परतरं पुनः ॥ 205 ॥
इस प्रकार यहाँ रात्रि और दिवसगत विषोदय का समय कहा है। उसमें पहले अग्निमय विष, मध्य में महेन्द्र विष और इसके बाद में जलमय विष होता है। पहला अग्निमय विष अति दुःखद, दूसरा माहेन्द्र कष्टसाध्य और तीसरा जलमय विष सुसाध्य कहा जाता है।
विषं साध्यमिति ज्ञातमपि चेन्नैव नश्यति ।
तदोपरान्तो विज्ञेयस्तस्य स्थितिमितिस्त्वियम् ॥ 206 ॥
यह ज्ञातव्य है कि साध्य विष जाने हुए भी यदि दूर न हो तो अपरान्त योग जानना चाहिए। अपरान्त की स्थिति का मान आगे कहे अनुसार होता है 1 विषस्य मर्यादामाह
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रविरोहिण्यमावास्या चेद्दवौ यामौ तदा विषम् । चन्द्राषाष्टमीयोगे चतुर्यामावधौ विषम् ॥ 207 ॥
रविवार, रोहिणी नक्षत्र और अमावस्या हो तो दो प्रहर तक और सोमवार, आश्लेषा नक्षत्र व अष्टमी तिथि हो तो चार प्रहर तक विष की मर्यादा कही जाती है। भौमोत्तराफा नवमी यामान् षट् सततं विषम् । बुधे चतुर्थ्यानुराधा यावद्यामाष्टकं विषम् ॥ 208 ॥
नवमी के दिन मङ्गलवार और उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र हो तो एकसे छह प्रहर तक और चतुर्थी के दिन बुधवार और अनुराधा नक्षत्र हो तो आठ प्रहर तक विष की मर्यादा होती है।
गुरौ च प्रतिपज्ज्येष्ठा षोडश प्रहरान् विषम् ।
शुक्रे मघा तृतीयायां द्वात्रिंशत्प्रहरान् विषम् ॥ 209 ॥
यदि प्रतिपदा के दिन गुरुवार और ज्येष्ठा नक्षत्र हो तो सोलह प्रहर और तृतीया के दिन शुक्रवार तथा मघा नक्षत्र हो तो बत्तीस प्रहर तक विष की मर्यादा होती
है।
शनीवार्द्राचतुर्दश्योः षड्दिनान्तं महाविषम् ।
कैश्चिदित्यपरान्तोऽयं तिथिवारर्क्षतो मतः ॥ 210 ॥