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अथ वर्षचर्या नाम सप्तमोल्लासः ॥ 7 ॥
अधुना संवत्सरीयकृत्योच्यते
दुष्प्राप्यं प्राप्य मानुष्यं कार्यं तत् किञ्चिदुत्तमैः । मुहूर्तमेकमप्यस्य याति नैव यथा वृथा ॥ 1 ॥
उत्तम मनुष्यों को चाहिए कि यह दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त कर ऐसा कोई कार्य करना चाहिए कि जिससे अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाए । तदर्थे निर्देशमांह
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दिवा यामचतुष्केण कार्यं किमपि तन्नरैः ।
निश्चिन्तहृदयैर्येन यामिन्यां सुप्यते सुखम् ॥ 2 ॥
मनुष्यों को दिवस के चारों ही प्रहर में ऐसे कोई कृत्य करने चाहिए ताकि रात्रि में निश्चिन्तता से, सुखपूर्वक निद्रा लग सके।
अष्टमासानुसारेण कृत्यं
तत् किञ्चिदष्टभिर्मासैः कार्यं कर्म विवेकिना ।
एकत्र स्थीयते येन वर्षाकाले यथासुखम् ॥ 3 ॥
विवेकी पुरुष को वर्ष के आठ मास में ऐसा कोई कृत्य करना चाहिए कि जिससे वर्षाकाल में सुखपूर्वक एक स्थल पर स्थिर रह सके । वृद्धावस्थार्थे युवावयोपयोगमाह -
यौवनं प्राप्य सर्वार्थसार्थसिद्धिनिबन्धनम् । तत्कुर्यान्मतिमान्येन वार्धके सुखमश्रुते ॥ 4 ॥
बुद्धिमान् पुरुष को समस्त कार्य जिससे साध्य हो सके, ऐसी यौवनावस्था पाकर ऐसे कार्यों का सम्पादन करना चाहिए कि जिससे वृद्धावस्था में सुख मिल सके।
पुनर्जन्मार्थकलासिद्धि आवश्यकत्वं
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अर्जनीय कलावद्भिस्तत्किञ्चिज्जन्मनामुना । ध्रुवमासाद्यते येन शुद्धं जन्मान्तरं पुनः ॥ 5 ॥