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180 : विवेकविलास
मूलराश्यानयनमाह -
आयामे विस्तारहते योऽङ्कः सञ्जायते किल। स मूलराशिर्विज्ञेयो गृहस्य गणकैः सदा॥70॥
गृह पिण्ड की लम्बाई और चौड़ाई को गुणा करने पर जो संख्या आती है, वह गृह की मूल राशि है, गणितकर्ताओं को इस पर अवश्य विचार करना चाहिए। गृहनक्षत्रानयनमाह -
अष्टाभिर्गुणितेमूल राशावस्मिन्विशारदैः। सप्तविंशातिभक्ते यच्छेषं तद्गृहभं भवेत्॥71॥
उपर्युक्त प्रकार से निकाली गई मूल राशि को 8 से गुणा कर के 27 से भाग देने पर जो शेष रहे, उसे गृह का नक्षत्र जानना चाहिए। व्ययानयन सफलमाह -
नक्षत्राङ्केऽष्टभिर्भक्ते योङ्कः स स्याद्गृहे व्ययः। पैशाचो राक्षसो यक्षः स त्रिधा स्मर्यते व्ययः ।। 72॥
नक्षत्र की संख्या को 8 से भाजित जो शेष रहे, उसे गृह के लिए व्यय बोधक जानना चाहिए। यह व्यय पैशाच, राक्षस और यक्ष- इस तरह तीन प्रकार का है।
पैशाचस्तु समायः स्याद्राक्षसस्त्वधिके व्यये। आयात्र्यूनतरो यक्षो व्ययः श्रेष्ठोऽष्टधा त्वयम्॥73॥
व्यय यदि आय जितना आए तो पैशाच संज्ञक; आय से अधिक आए तो राक्षस और आय से कम आए तो यक्ष संज्ञक होता है। इन तीनों में यक्ष संज्ञक व्यय श्रेष्ठ जाने। अब आठ प्रकार का व्ययों को संख्यानुसार कहते हैं।
शान्तः पौरस्तथोद्योतः श्रेयानन्दो मनोहरः। श्रीवत्सो विभवश्चापि चिन्त्यात्मेत्यष्टधा व्ययः॥74॥
उपर्युक्त रीति से नक्षत्र की संख्या को 8 से भाजित करते हुए शेष 1 रहे तो शान्त नामक व्यय, 2 शेष रहे तो पौर, 3 रहे तो उद्योत, 4 रहे तो श्रेयानन्द, 5 रहे तो मनोहर, 6 रहे तो श्रीवत्स, 7 रहे तो विभव और सम भाग आए तो आठवाँ चिन्त्य नामक व्यय जानना चाहिए।
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* तुलनीय-समो व्ययः पिशाचश्च राक्षसस्तु व्ययोऽधिकः । व्ययो न्यूनो यक्षश्चैव धनधान्यकरः स्मृतः ॥
अनायव्यये कर्तरि आयहीने व्यये तथा। व्ययाधिक विनश्यन्ति अचिरैणै सर्वदा ।। ध्वजादिष्वष्टस्वायेषु अष्टौ शान्तादिका व्ययाः । प्रत्येकव्ययसंस्थाने आयो न्यूनेत्तरे स्मृतः ॥ शान्तः पौरः प्रद्योतश्च श्रियानन्दो मनोहरः । श्रीवत्सो विभवश्चैव चिन्तात्मा च व्ययाः स्मृताः ॥ (अपराजित. 66, 3-6)