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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 187 स्थल, मस्तक, नाभि और दोनों स्तन- ये पाँचों गृह के मर्मस्थल कहे जाते हैं।
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* इसी प्रकार धाराधिप भोज ने मर्म वेध के सन्दर्भ में कहा है कि वास्तुपुरुष के न्यास के अनुसार भीतर
के तेरह, बाहर के बत्तीस जो देवता हैं, उनके स्थान, जो मर्म, जो शिराएँ और जो वंश हैं, उनमें से मुख में, हृदय, नाभि, सिर तथा दोनों स्तनों में जो वास्तुपुरुष के मर्म हैं, उनको षण्महन्ति कहा जाता है। वंशा, अनुवंश और संपात् तथा पद के मध्य में देवों के स्थान हैं वे प्रथम सोलह पद के वास्तु में रहते हैं- अन्तस्त्रोदश सुरा द्वात्रिंशद् बाह्यतश्च ये। तेषां स्थानानि मर्माणि सिरा वंशाश्च तेषु तु॥ मुखे, हृदि च नाभौ च मूर्ध्नि च स्तनयोस्तथा। मर्माणि वास्तुपुंसोऽस्य षण्महन्ति प्रचक्षते ॥ वंशानुवंशसम्पाता: पदमध्यानि यानि च। देवस्थानानि तान्याचे पदषोडशकान्विते ।। (समराङ्गण सूत्रधार 13, 6-8) वराहमिहिर ने कहा है कि वास्तुपीठ में ईशान से नैर्ऋत्य व वायव्य से अग्निकोण तक कर्णाकार विस्तृत सूत्रों का संपात् जिस पूर्वापर रेखा व कोष्ठ से होता है, वह रेखा, संपातस्थान व कोष्ठ संपात स्थान सभी वास्तुपुरुष के मर्म स्थान हैं। बुद्धिमान इन मर्म स्थानों को उत्पीडित न करें, क्योंकि वास्तुपुरुष का जो मर्मात पीड़ित होगा, गृहस्वामी का भी वही मर्मात पीड़ित होगा-सम्पाता वंशानां मध्यानि समानि यानि च पदानाम्। तानि मर्माणि विद्यान्न तानि परिपीडयेत् प्राज्ञः ॥ तान्यशुचिभाण्डकीलस्तम्भाधैः पीडितानि शल्यैश्च । गृहभर्तुस्तुत्तुल्ये पीडामङ्गे प्रयच्छन्ति॥ (बृहत्संहिता 53, 57-58)