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अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 189 अधुना गृहश्रीवृद्धिक्रमाह -
न दोषो यत्र वेधादिर्नवं यत्राखिलं दलम्। बहूद्वाराणि नो यत्र यत्र धान्यस्य सञ्चयः ॥96॥ पूज्यन्ते देवतां यत्र यत्राभ्युत्थानमदरात्। रक्ता यमनिका यत्र यत्र सम्मार्जनादिकम्॥97॥ . यत्र ज्येष्ठकनिष्ठादि व्यवस्था सुप्रतिष्ठिता। भावनीया विशन्त्यन्तर्मानवो यत्र नैव च॥98॥(चतुर्भि: कलापकम्)
जहाँ वेधादि दोष नहीं हो; जहाँ घर का सारा दल नया हो; जहाँ जाने-आने के मार्ग अधिक नहीं; जहाँ धान्य का संग्रह बहुत है; जहाँ देवताओं का पूजन होता हो, जहाँ अतिथियों सत्कार बहुत होता है; जहाँ शुद्धता-शुचिता हो, जहाँ छोटे-बड़े की मर्यादा का बराबर पालन किया जाता हो; जहाँ सूर्य की किरणें छप्पर में से अन्दर प्रवेश नहीं करती हों (वह लक्ष्मीकारक है)।
दीप्यते दीपको यत्र पालनं यत्र रोगिणाम्। श्रान्तसंवाहना यत्र तत्र स्यात्कमला गृहे॥११॥
जहाँ भली प्रकार दीप प्रज्वलित कर प्रकाश किया जाता हो; जहाँ रुग्ण-रोगी लोगों की सम्यक रूप से रक्षा-तिमारदारी होती हो और जहाँ थके हुए मनुष्य को विश्राम मिलता हो- वहाँ पर लक्ष्मी निवास करती है। भवनवृद्धिहेतुमाह -
चन्दनादर्शहेमोक्ष व्यजनोसनवाजिनः। . शङ्खाज्यदधिताम्राणि मतानि गृहवृद्धये॥ 100॥
चन्दन, दर्पण, स्वर्ण, बेल, व्यञ्जन (चँवर, पके आदि) आसन, अश्वादि वाहन, शङ्ख, घृत, दही और ताम्र के पात्र- इतनी वस्तुएँ भवन की वृद्धि की हेतु हैं। सत्कार विचारं -
दद्यात्सौम्यां दृशं वाचमभ्युत्थानमथासनम्। शक्त्या भोजनाताम्बूलं शत्रावपि गृहागते॥ 101॥
अपने यहाँ कदाचित अपना वैरी आया तो भी उसे सौम्य दृष्टि से देखना चाहिए। मधुर शब्दों के साथ चर्चा करना, सम्मुख जाना, आसन प्रदान करना और यथाशक्ति भोजन करवाकर पान का बीड़ा खिलाना चाहिए।
शस्ते चम्पकपाटले च कदली जाती तथा केतकी। यामादूर्ध्वमशेषवृक्षसुरजाच्छाया न शस्ता गृहे पार्थे कस्य हरेरवीशपुरतो जैनानुचण्ड्याः क्वचित्॥ (राजवल्लभ. 1, 28) वास्तुमण्डनं में आया है- न कुर्यादऽर्हतः पृष्ठे अग्रतः शिव-सूर्ययोः । पार्श्वयो ब्रह्म विद्वेषो गृहं चण्ड्या समं ततः ॥ शिव-सूर्य-जिनादीनामन्तरेण शुभं गृहम्। (वास्तुमण्डनं 7, 49-50)