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गृहद्वारव्यपक्षेया ।
पूर्वादिदिग्वनिर्देशो भास्करोदयदिक्पूर्वा न विज्ञेया यथा क्षुते ॥ 86 ॥ *
जिस प्रकार छींक के सम्बन्ध में जिस दिशा में मुँह हो, वह पूर्व दिशा ही ग्रहण की जाती है, वैसे ही गृह के विषय में भी जिस दिशा में गृह का द्वार हो वही पूर्व दिशा एवं तदनुसार ही अन्य दिशाएँ जाननी चाहिए। इसके विपरीत, जिस दिशा में सूर्योदय होता है, उस पूर्व दिशा से यहाँ प्रयोजन नहीं है। गृहार्थे हस्तप्रयोग विधिं
अथ जन्मचर्या नाम अष्टमोल्लासः : 185
गृहेषु
हस्तसङ्ख्यानं मध्यकोणैर्विधीयते ।
समाः स्तम्भाः समाः पट्टा विषमाश्च क्षणाः पुनः ॥ 87 ॥
यदि गृह को नापना हो तो हस्त की संख्या को मध्यवर्ती कोण से ग्रहण किया
जाता है। गृह के स्तम्भ और पट्टियाँ सम संख्या और गृह के खण्ड विषम संख्या में
निवेशित करने चाहिए । आयविपर्ययादीनां विचारं
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आये नष्ट सुखं न स्यान्मृत्युः षट्काष्टके पुनः । द्विर्द्वादशे च दारिद्र्यं त्रित्रिकोणेऽङ्गजक्षयः ॥ 88 ॥
भवन के लिए अपेक्षित आय यदि नहीं हो तो सुख नहीं होता है और षडष्टक योग हो तो मृत्युप्रद और द्विर्द्वादश योग हो तो धन का क्षय तथा तीन- पाँच या तीनका योग हो तो पुत्र का नाश होता है, ऐसा जानना चाहिए।"
टोडरमल्ल (1577 ई.) ने इस श्लोक को वास्तुसौख्यम् में विश्वकर्मा का मत कहकर किञ्चित पाठान्तर के साथ उद्धृत किया है— पूर्वादिदिग्वनिर्देश्या गृहद्वारविवक्षया । भास्करोदयदिक्पूर्वा न विज्ञेया यथार्थतः ॥ (टोडरानन्द वास्तुसौख्यं श्लोक 285)
यह श्लोक सूत्रधार मण्डन कृत वास्तुमण्डनं ( 5, 2) में भी उद्धृत है। इससे ऐसा लगता है कि पूर्वकाल में वास्तु के लिए गृहमुखानुसार भी दिशा को कल्पित कर कक्षादि का नियोजन होता था । यह मत न विश्वकर्माप्रकाश में है न ही विश्वकर्मन्नवास्तुशास्त्र में है। विश्वकर्माप्रकाश में दिशा के लिए स्पष्ट किया गया है— चतुरस्त्रां समां शुद्धां भूमिं कृत्वा प्रयत्नतः । तस्मिन् दिक् साधनं कार्यं वृत्तमध्यगते दिशि: ॥ (विश्वकर्माप्रकाश 2, 14 ) इसी प्रकार विश्वकर्मन्नवास्तुशास्त्र में स्पष्ट किया गया है- प्राची परीक्षयेत्सम्यक् सूर्यगत्यनुमानतः । गृहीतस्थलके शङ्कुमवटे स्थापयेत्क्रमात् ॥ (विश्वकर्मा. 3, 7 )
* * लल्लाचार्य का निष्कर्ष है कि नाड़ीयोग या एक नाडी होने पर मृत्यु, छठे आठवें विपदा, नव-पञ्चम में अनपत्यता तथा द्विर्द्वादश में दारिद्र्य होता है— मरणं नाडियोगे कलहः षट्काष्टके विपत्तिर्वा । अनपत्यता त्रिकोणे द्विर्द्वाशके च दारिद्रम् ॥ (बृहद्दैवज्ञरञ्जनम् 71, 354 )
इसी प्रकार श्रीपति का मत है कि दोनों की राशि यदि छठे आठवें में हो तो मृत्यु की आशंका होती है। नव-पञ्चम हो तो सन्तान का अभाव, द्वितीय- द्वादश हो तो धनाभाव तथा अन्य चार में बुद्धि होती है — षष्ठाष्टमे मृत्युरपत्यहानिः पाणिग्रहे स्यान्नवपञ्चमे च । नैस्वं धने द्वादशके परे तु प्रज्ञानिरेका हिबुके वरस्य ॥ ( ज्योतिषरत्नमाला 16, 13 )