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उल्लासोपसंहरति
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विवेकविलास : 153
यातेऽस्ताचलचूलिकान्तरभुवं देवे रवौ यामिनी
यामार्थेषु विधेयमित्याभिदधे सम्यग्मया सप्तसु ॥ यस्मिन्नाचरिते चिराय दधते मैत्रीमिवाकृत्रिमां जायन्ते च वंशवदाः शुचिधियां धर्मार्थकामाः स्फुटम् ॥ 258 ॥ इस प्रकार से सूर्यास्त के बाद रात के सात चौघड़ियों तक का कृत्य मैनें सम्यक् प्रकार से यहाँ कहा है। शुद्ध मन वाले मनुष्यों को इन कृत्यों का आचरण करने से धर्म, अर्थ और काम- ये तीनों पुरुषार्थ मित्र की भाँति प्रकटीभूत हो जाते हैं। इति श्रीजिन्दत्तसूरि विरचिते विवेकविलासे दिनचर्यायां पञ्चमोल्लासः ॥ 5 ॥ इति श्रीजिनदत्त सूरि कृत विवेकविलास में दिनचर्या का पाँचवाँ उल्लास पूर्ण
हुआ ।