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अथ दिनचर्यायां प्रथमोल्लास: : 51 रौद्रा निहन्ति कर्तारमधिकाङ्गा तु शिल्पिनम्। कृशा द्रव्यविनाशाय दुर्भिक्षाय शशोदरा ॥ 146॥
यदि प्रतिमा रौद्र स्वरूप वाली हो तो वह अपने कर्ता की विनाशकारक होती है। अधिकाङ्गा हो तो शिल्पी का विनाश करती है। परिमाण से कृशकाय हो तो द्रव्य का नाश होता है और शशोदरा हो तो दुर्भिक्ष या अकालकारक होती है।
वक्रनासातिदुखाय ह्रस्वाङ्गा क्षयकारिणी। अनेत्रा नेत्रनाशाय स्वल्पास्या भोगवर्जिता॥ 147 ॥
यदि वक्र नासिका वाली प्रतिमा हो तो बहुत दुःख उत्पन्न करती है और ह्रस्व अवयव की हो तो क्षयकारी होती है। यदि प्रतिमा में नेत्र नहीं बनाए गए हो तो वह कर्ता के नेत्रों का विनाश करती है और छोटा मुँह हो भोग से वञ्चित कर देती है।
जायते प्रतिमा हीनकटिराचार्यघातिनी। जङ्काहीना भवेद् भ्रातृपुत्रमित्रविनाशनी॥148॥ पाणिपादविहीना तु धनक्षयविनाशनी। चिरपर्युषिता या तु नादर्तव्या यतस्ततः ॥ 149॥
यदि प्रतिमा हीन कटि वाली हो तो आचार्य, गुरु का विनाश करती है। जङ्घा विहीन हो जाए तो भाइयों, पुत्र, मित्र का विनाश करती है। हाथ और पाँव से विहीन प्रतिमा धन का क्षय करने वाली और विनाशक होती है। यदि बिना ही पूजा के कोई प्रतिमा दीर्घकाल तक पड़ी हो और इधर-उधर से ग्रहण नहीं करनी चाहिए।
अर्थहृत्प्रतिमोत्ताना चिन्ताहेतुरधोमुखी। आधिप्रदातिरश्चीना नीचोच्चस्था विदेशदा॥ 150॥
यदि प्रतिमा उन्मुख हो तो द्रव्य-सम्पदा की दृष्टि से विनाशकारी होती है। अधोमुख प्रतिमा चिन्ता उत्पन्न करने वाली होती है। टेढ़ी-मेढ़ी हो तो मन में दुःखादि उत्पन्न करने वाली और निनोच्च हो तो परदेश गमन करवाने वाली होती है।
अन्यायद्रव्यनिष्पन्ना परवास्तुदलोद्भवा। हीनाधिकाङ्गी प्रतिमा स्वपरोन्नतिनाशिनी॥ 151॥
जो प्रतिमा अन्याय से कमाए गए द्रव्य से बनाई हो; अन्य किसी गृह कार्य के लिए लाए गए पत्थर की तैयार की गई हो अथवा न्यूनाधिक अवयव वाली हो तो उसकी पूजादि से अपनी उन्नति की और प्रतिष्ठापक की इष्ट वस्तु से होने वाली उन्नति के भी विनाश की आशंका रहती है। प्रासादानुसारेण प्रतिमा मानप्रमाणमाह -