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अथ धर्मकृत्याहारव्याधिघटिकादीनां वर्णनं नाम तृतीयोल्लासः : 103
उद्वेगं याति मार्जारः पुरीषं कुरुते कपिः ।
गति स्खलति हंसस्य ताम्रचूडो विरौति च ॥ 7 ॥
विषाक्त अन्न देखकर बिलाव को उद्वेग होता है; बन्दर विष्ठा करता है; हंस चलते हुए गिरता जाता है और मुर्गा बाँग देने लगता है ।
अन्यदपि
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सविषं देहिभिः सर्व भक्ष्यमांण करोत्यलम् ।
ओष्ठे चिमचिमामास्ये दाहं लालाजलप्लवम् ॥ १० ॥
विष मिश्रत अन्न मनुष्यों के खाने में आ जाए तो उसके ओष्ठ में चबलता होने लगती है। मुँह में जलन होती है और बार-बार लार टपकने लगती है। हनुस्तम्भो रसज्ञायां कुरुते शूलगौरवे ।
तथा क्षाररसाज्ञानं दाता चास्याकुलो भवेत् ॥ 91॥
इसी प्रकार विष मिश्रत अन्न खाने में आए तो कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है। जिह्वा भारी हो जाती है जीभ में दर्द होता है। उसे खारीय रसानुभूति नहीं होती। दूसरी ओर विष देने वाला व्याकुल हो जाता है ।
स्फाटिकष्टङ्कणक्षारो धार्यः पुंसो मुखान्तरे ।
न वेत्ति क्षारतां यावदित्युक्तं स्थावरे विषे ॥ 92 ॥
विष-प्रयोग की आशङ्का हो तो पुरुष के मुँह में फिटकड़ी और टङ्कणखार रखने के लिए देना चाहिए। जब तक वह खारी न लगे तब तक विष विकार हैऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार स्थावर विष ज्ञानोपाय कहा है।
उल्लासोपसंहरति
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इत्थं चतुर्थप्रहरार्धकृत्यं सूर्योदयादत्र मया बभाषे ।
तत्कुर्वतां देहभृतां नितान्तमाविर्भवत्येव न रोगयोगः ॥ 93 ॥
इस प्रकार मैंने यहाँ सूर्योदय से लगाकर चौथे प्रहर के अर्द्धभाग तक का कृत्यादि वर्णित किया है। इसके अनुसरण करने से मनुष्यों के शरीर में कभी भी रोग का प्रादुर्भाव नहीं होता है ।
इति श्रीजिनदत्तसूरि विरचिते विवेकविलासे दिनचर्यायां तृतीयोल्लासः ॥ 3 ॥ इस प्रकार श्रीजिनदत्त सूरि विरचित विवेक विलास में दिनचर्या का तृतीय उल्लास पूरा हुआ।