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अथ दीपशयनवरवधूलक्षणजातकादीनां वर्णनं नाम पञ्चमोल्लास : : 147
उक्त गर्भ प्रायः आठवें मास में परिपक्व होता है और विशेषकर ओजाहार (रूप, आहारादि) प्राप्त करता हुआ पुष्ट होता है। जीवस्य गर्भावासावधिं
गर्भे जीवो वसत्येवं वासराणां शतद्वयम् ।
अधिकं सप्तसप्ताया दिवसार्धेन च ध्रुवम् ॥ 229 ॥
सामान्यतया कोई जीव गर्भवास में साढ़े 277 दिवस तक निवास करता है अर्थात् यह गर्भावधि कही गई है।
गर्भस्त्वधोमुखो दुःखी जननीपृष्ठसम्मुखः ।
बद्धाञ्जलिर्ललाटे च पच्यते जाग्निना ॥ 230 ॥
गर्भ में स्थित जीव माता की पीठ की ओर नीचा मुँह किए, अपनी ललाट पर बद्धाञ्जलि रूप में बहुत दुःख में रहता है। वह अपनी माता की जठराग्नि से ही परिपक्व होता है।
असौ जागर्ति जाग्रत्यां स्पपत्यां स्वपिति स्फुटम् ।
सुखिन्यां सुखवान् दुःखी दुःखवत्यां च मातरि ॥ 231 ॥
इसी प्रकार जब माँ जगती है तो गर्भ जगता है और माता के सोने पर गर्भ भी सो जाता है। माँ जब सुखानुभूति करे तो गर्भ भी सुखी होता है और माँ के दुखी होने पर गर्भ भी खेद पाता है ।
पुरुषो दक्षिणे कुक्षौ वामे स्त्री यमलौ द्वयोः ।
ज्ञेयं तूदरमध्यस्थं नपुंसकमसंशयम् ॥ 232 ॥
यदि पुरुष जाति का गर्भ हो तो वह दाहिनी ओर होता है। स्त्री जाति का हो तो बायीं ओर यदि यमल सन्तति या जुड़वाँ हो तो उभय पार्श्व में और नपुंसक जाति गर्भ हो तो कुक्षी के मध्यभाग में अवस्थित रहता है ।
गण्डातादीनां विचारं
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गण्डान्तो मूलमषा विषमस्थानगा ग्रहाः ।
कुदिनं मातृदुःखं च न स्युर्भाग्यवतां जनौ ॥ 233 ॥
भाग्यशाली मनुष्य के जन्म समय गण्डान्त, मूल नक्षत्र, आश्लेषा नक्षत्र,
गण्डान्त तीन प्रकार के हैं- तिथिगण्डान्त, नक्षत्रगण्डान्त तथा लग्न या राशि गण्डान्त । ये अनिष्ठकारी होते हैं। शुभकार्यों के प्रसङ्ग में इनका त्याग कर दिया जाना चाहिए - गण्डान्त त्रिविधं प्रोक्तं नक्षत्रतिथिराशिजम् । नवपञ्चचतुर्थ्यंते ह्येकार्द्धघटिकामितम् ॥ ( मुहूर्तदीपकटीका 20) अश्विनी एवं रेवती के पूर्व व बाद की दो-दो घटी, मघा व आश्लेषा के पूर्व व बाद की दो-दो घटी, मूल व ज्येष्ठा के पूर्व व बाद की दो-दो घटी तक गण्डान्त होता है। ऐसे में इनकी शान्ति करवाई जाती है । त्रिविध गण्डान्त के विषय में ज्योतिष की मान्यता यह भी है कि नक्षत्र, तिथि व लग्न या राशि संज्ञक तीनों