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अथ दीपशयनवरवधूलक्षणजातकादीनां वर्णनं नाम पञ्चमोल्लासः : 149 आद्यः षष्ठस्त्रयोविंशो द्वितीयो नवमोऽष्टमः। अष्टाविंशश्च मूलस्य मुहूर्ता दुःखदा जनौ ॥ 235॥
मूल नक्षत्र के तीस मुहूर्त में पहला, दूसरा, छठवाँ, आठवाँ नवाँ, तेरहवाँ अथवा अठाईसवाँ मुहूर्त जन्म के समय हो तो माता के लिए दुःखदायी जानना चाहिए। परजातजन्मविचारं -
भौमार्कशनिवाराचे दसंपूर्णं च भं तथा। भद्रा तिथिस्त्रिसंयोग परजातः पुमान् भवेत्॥ 236॥
यदि सन्तान के जन्म के समय रवि, मङ्गल, शनि- इनमें से एक वार, अपूर्ण नक्षत्र और भद्रा तिथि (2, 7, 12) इन तीनों का योग हो तो उत्पन्न हुई सन्तति व्यभिचारी होती है। अधुना जारजातं
गुरुर्न प्रेक्षते लग्नं सार्केन्दु च तथा विभुः। .
सकूरेन्दुयुतोऽश्चच्चतुर्थे भे परात्मजः ॥ 237॥ ___ यदि लग्न में सूर्य और चन्द्रमा हो, लग्न का स्वामी और गुरु लग्न को न देखे, और चतुर्थ स्थान में पापग्रह सहित चन्द्र और सूर्य हो तो किसी परपुरुष से सन्तति उत्पन्न हुई है, ऐसा जानना चाहिए। अधुना दन्तोद्भवफलं- .
यदि दन्तैः समं जन्म यदि वा दशनाः शिशोः। स्युर्मध्य सप्तमासस्य कुलनाशस्तदा ध्रुवम्॥ 238॥ शान्तिकं तत्र कर्तव्यं दुनिमित्तविनाशकम्।
जो शिशु दन्त सहित जन्मा हो या सात मास के भीतर बालक के दन्त उत्पन्न हो जाए तो निश्चित ही कुल का विनाश होता है। इसलिए उस अल्प लक्षण के नाश के हेतु (ज्योतिषशास्त्र निर्दिष्ट) शान्ति और पुष्टिकर्म करना अपेक्षित है।"
जन्मप्रभृतितो दन्ताः पूर्णाः स्युर्वत्सरद्वये॥ 239॥
सप्तमाद्दशवर्षान्तर्निपत्योद्यन्ति ते पुनः। * यवनेश्वर का मत है- अजीवभागेऽप्यनवीक्षिते वा जीवेन चन्द्रेऽथ विलग्नभे वा। जातं परोद्भूतमिति ब्रुवन्ति वाच्यो जनेनाथ बलावलोकात्॥ (बृहज्जातक भट्टोत्पलीय विवृति 5, 6 पर उद्धृत) उक्त योगों में यदि चन्द्रमा गुरु की राशि या द्रेष्काणादि में हो तो परजात नहीं समझना चाहिए- गुरुक्षेत्रगते
चन्द्रे तयुक्ते वाऽन्यराशिगे। तद्रेष्काणे तदंशे वा न परेर्जात इष्यते॥ (तत्रैवोद्धृत गार्गि वचन) *"बल्लालसेन कृत 'अद्भुतसागर' में इस प्रकार की विभिन्न शान्तियों का वर्णन आया है। वैसे
राजमार्तण्डोक्त शान्ति, पुष्टिकर्म के विषय में पूर्व 234वें श्लोक की पाद टिप्पणि में कहा गया है। इनमें साम्प्रदायिक शान्तियाँ भी विचारणीय हो सकती है। मत्स्यपुराण में जननोत्पात शान्ति के अर्थ में विप्रों को सन्तुष्ट करने का निर्देश है।
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