________________
अथ दीपशयनवरवधूलक्षणजातकादीनां वर्णनं नाम पञ्चमोल्लासः : 145 वह गर्भ तीसरे मास लगते ही माता का दोहद (हूँस या कुछ खाने की इच्छा) उत्पन्न करता है। उक्त दोहद गर्भ के प्रभावानुसार ही शुभाशुभ का बोधक होता है।
पुनाम्नि दोहदे जाते पुमान्स्त्रीसज्ञके पुनः। स्त्री क्लीबाढे पुनः क्लीबं स्वप्रेऽप्येवं विनिर्दिशेत् ॥ 218॥
यदि स्त्री को पुरुष प्रजाति की वस्तु का दोहद हो तो पुत्र के होने की सम्भावना होती है और स्त्री प्रजाति की वस्तु अभीष्ट हो तो पुत्री होगी। इसी प्रकार नपुंसक प्रजाति की वस्तु वाञ्छित हो तो नपुंसक सन्तान हो। गर्भिणी को आने वाले स्वप्न" का फल भी इसी प्रकार से जानना चाहिए।
अपूर्णाहोहदाद्वायुः कुपितोऽन्तः कलेवरम्। सद्यो विनाशयेद्गर्भ विरूपं कुरुतेऽथवां ॥ 219॥
यदि दोहद पूर्ण नहीं हो तो उससे गभिर्णी के शरीर में वायु कुपित हो जाती है और गर्भ का विनाश करती है अथवा गर्भ को विरूप करती है। पञ्चममासे गर्भस्थिति -
मातरङ्गानि तुर्ये तु मासे मांसलयत्यलम्। पाणिपादशिरोऽङ्करा जायन्ते पञ्च पञ्चमे ।। 220॥
उक्त गर्भ चौथे मास में माता के शरीर को बहुत पुष्ट करता है और पाँचवें मास में उस गर्भ में से हाथ के दो, पाँव के दो और शिर का एक इस प्रकार कुल पाँच अङ्कर बाहर आते हैं।
• गर्भकाल में महिलाएँ प्रायः कुछ-न-कुछ विशेष आहार या वस्तु की आकांक्षा करती दिखाई देती हैं। कालिदास ने वृक्षों में भी इस प्रकार की कामनाएं देखी हैं। प्रसिद्ध टीकाकार मल्लिनाथ ने कहा है कि दोहद से आशय ऐसा संस्कारमय द्रव्य है जो प्रसव-कारण परिलक्षित होता है- दोहदं वृक्षादीनाम् प्रसवकारणं संस्कारद्रव्यम् (मेघदूत, उत्तरमेघ पृष्ठ 132)। इसी बात को नैषधीयचरितम् में श्रीहर्ष ने अभिव्यक्त किया है कि दोहद ऐसे द्रव या द्रव्य की फूंक स्वीकारनी चाहिए जो वृक्ष, पौधों एवं लतादि में पुष्प प्रसवित करने का सामर्थ्य प्रदान करती है- महीरुहा: दोहदसेकशक्तिराकालिकं कोरकमुद्रिन्ति। (नैषधीय. 3, 21) कामिनी के स्पर्श से प्रियङ्ग विकसित होता है तथा बकुल वृक्ष मुखासवपान, अशोक पादाघात, तिलक दृष्टिपात, कुरबक आलिङ्गन, मन्दार मधुरवचन, चम्पक वृक्ष मृदु मुस्कान व हास्य तथा कनैल का वृक्ष नीचे नृत्य करने से पुष्पित होता है-स्त्रीणां स्पर्शत्प्रियङ्गर्विकसति बकुलः सीधुगण्डूषसेकात्पादाघातादशोकास्तिलककुरबको वीक्षणालिङ्गनाभ्यम्। मन्दारो नर्मवाक्यात्पटु
मृदुहसनाच्चम्पको वकावाताचूबो गीतान्नमेरुर्विकसति च पुरो नर्तनात् कर्णिकारः ।। (मेघदूत 2, 18) **कल्पसूत्र में नारी को इस काल में होने वाले सपनों का सुन्दर वर्णन आया है। इन सपनों के आधार
पर ही पुत्र के महापुरुष होने का पूर्वानुमान प्रकट किया गया है। महारानी त्रिशला को आए चौदह महास्वप्नों में गज, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, पुष्पमाला, चन्द्र, सूर्य, ध्वजा, कुम्भ, पद्मसरोवर, समुद्र, विमान, रत्नराशि व निधूम अग्नि हैं-गय वसह सीह अभिसेय दाम ससि दियरं झय कुंभं। पउमसर सागर विमाण भवण रयणुच्चय सिहिं च ॥ (कल्पसूत्र 33, 1)