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अथ दीपशयनवरवधूलक्षणजातकादीनां वर्णनं नाम पञ्चमोल्लासः : 143
रत्नानीव प्रशस्तेऽह्नि जाताः स्युः सूनवः शुभाः । अतो मूलमपि त्याज्यं गर्भाधाने शुभार्थिभि ॥ 208॥
उत्तम दिन को उत्पन्न हुए पुत्र रत्नों के तरह होते हैं। इसलिए कल्याणर्थी पुरुषों को गर्भाधान के समय मूल नक्षत्र का भी त्याग करना चाहिए। आधानाद्दशमे जन्म दशमे कर्म जन्मभात् ।
कर्मभात् पञ्चमे मृत्युः कुर्यादेषु न किञ्चिन ॥ 209 ॥
गर्भाधान के नक्षत्र से दसवाँ जन्म नक्षत्र, जन्म नक्षत्र से दसवाँ कर्म नक्षत्र और कर्म नक्षत्र से पाँचवाँ मृत्यु नक्षत्र कहलाता है। इसलिए इन चारों (गर्भ, जन्म, कर्म व मृत्यु) नक्षत्रों में कोई भी काम नहीं करना चाहिए । अथ सङ्गकालाज्जातस्य पुञ्जन्मयोगं
पापाः षट्त्र्यायगाः सौम्यास्तनुत्रिकोणकेन्द्रगाः । स्त्रीसेवासमये सौम्ययुक्तेन्दुः पुत्रजन्मदः ॥ 210 ॥
स्त्रीसङ्ग के समय पापग्रह ( रवि, शनि, मङ्गल, राहु, केतु) तीसरे, छठें अथवा ग्यारहवें स्थान में हों; सौम्यग्रह (बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र) पहले, चौथे, सातवें, दसवें, पाँचवें अथवा नवें स्थान पर हों और चन्द्र शुभ ग्रह के योग में हो तो पुत्र जन्म होता है। *
अन्यदप्याह
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पुराणे रजसि क्षीणे नवासृक्शुक्रसञ्चये ।
स्त्रीणां गर्भाशये जीवः स्वकर्मवशगो विशेत् ॥ 211 ॥
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• जब ऋतु सम्बन्धी पुराने रज का विनाश हो और नवीन रुधिर व शुक्र का संमिश्रण हो तब नारी के गर्भाशय में स्वकर्मवशात् जीव स्थान बनाता है।
स्त्रीपुंनपुसकयोगाञ्च
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नारी रक्तेऽधिके शुक्रे नरः साम्ये नपुंसकः ।
अतो वीर्यविवृद्धयर्थं वृष्ययोगाञ्श्रयेत्पुमान् ॥ 212 ॥
संयोगकाल में यदि स्त्री का रक्त अधिक हो तो कन्या पुरुष के शुक्र का आधिक्य हो तो पुत्रोत्पति होती है। यदि स्त्री का रज और पुरुष का शुक्र एक-सा हो तो नपुंसक सन्तति होती है। अतएव वृष्य - शुक्र वृद्ध्यर्थ उचित उपाय करना अपेक्षित है।
वृष्यवस्तुनामाह
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इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए वराहमिहिरकृत बृहज्जातक का दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय देखना चाहिए ।