________________
अथ दीपशयनवरवधूलक्षणजातकादीनां वर्णनं नाम पञ्चमोल्लासः : 139 स्नात्वैकान्ते चतुर्थेऽह्रि वर्जयेदन्यदर्शनम्। सुशृङ्गारा स्वभर्तारं सेवेत कृतमङ्गला॥ 185॥
रजस्वला को चतुर्थ दिवस एकान्त में स्नानकर परपुरुष को नहीं देखना चाहिए अपितु सुन्दर बनाव-शृङ्गारकर, मङ्गलकृत स्वपति का सेवन करना चाहिए। ऋतुकालावधिं -
निशाः पोडश नारीणामृतुः स्यात्तासु चादिमाः। तिस्रः सर्वैरपि त्याज्याः प्रोक्ता तुर्यापि केन चित्॥186॥
सामान्यतया स्त्रियों की सोलह रात तक ऋतु होती है। उनमें से पहली तीन रात्रि भोग में वर्जनीय है, ऐसा आचार्यों का मत हैं किन्तु कतिपय विद्वान् चतुर्थ रात्रि भी वर्जनीय कहते हैं। ऋतुदिवसानुसारेण सन्तानोद्भवविचारं
चतुर्थ्यां जायते पुत्रः स्वल्पायुर्गुणवर्जितः। विद्याचारपरिभ्रष्टो दरिद्रः क्लेशभाजनः॥ 187॥
यदि चतुर्थ रात्रि को गर्भ रहे तो अल्पायु वाला, गुणरहित, विद्या और आचारहीन दरिद्री और क्लेश भोगने वाला पुत्र उत्पन्न होता है।
पञ्चम्यां पुत्रिणी नारी षष्ठयां पुत्रस्तु पुत्रवान्। सप्तम्यामप्रजा कन्या चाष्टम्यामीश्वरः सुतः॥ 188॥
यदि पाँचवीं रात्रि को गर्भ रहे तो पुत्र को प्रसव करनेवाली कन्या हो; छठी रात्रि को गर्भ रहे तो पुत्रवन्त पुत्र होगा; सातवीं रात को गर्भ रहे तो बाँझ कन्या होगी और आठवीं रात को गर्भ रहे तो सामर्थ्य-ऐश्वर्यवान् पुत्र होता है।
नवम्यां सुभगा नारी दशम्यां प्रवरः सुतः। एकादश्यामधर्मा स्त्री द्वादश्यां पुरुषोत्तमः॥ 189॥
यदि नवीं रात्रि को गर्भ रहे तो सुन्दर कन्या होगी; दसवीं रात्रि को रहे तो श्रेष्ठ पुत्र होगा; ग्याहरवीं रात्रि को रहे तो अधर्मी कन्या हो और बारहवीं रात को यदि गर्भ रहे तो पुरुषों में उत्तम पुत्र उत्पन्न होता है।
त्रयोदश्यां सुता पापा वर्णसङ्करकारिणी। प्रजायते चतुर्दश्यां सुपुत्रो जगतीपतिः ॥ 190॥
अगर तेरहवीं रात्रि को गर्भ रहे तो वर्णसङ्कर करने वाली पाप-कन्या हो; चौदहवीं रात्रि को गर्भ रहे तो पृथ्वीपति जैसा पुत्र होता है।
राजपत्नी महाभोगा राजवंशकरा सती।। जायते पञ्चदश्यां तु बहुपुण्या च सुव्रता॥ 191॥