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138 : विवेकविलास
(मङ्गलसूत्रादि) को अवश्य धारण किए रहना चाहिए। ऐसे समय में अपने सासससुर आदि के पास ही रहना चाहिए ।
कोपान्य वेश्म संस्थानं सम्पर्को लिङ्गिभिस्तथा ।
उद्यानाद्यटनं पत्युः प्रवासे दूषणं स्त्रियाः ॥ 179 ॥
पति के परदेश जाने पर भी क्रोध करना, औरों के घर रहना, योगिनी, संन्यासिनी की सङ्गत करना और उद्यानों में विहार करना जैसे कार्य सम्भ्रान्त परिवारों की स्त्रियों को दोष लगाने वाले कहे गए हैं।
अन्यदपिं
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अञ्जनं भूषनं गानं नृत्यं दशनमार्जनम् । नर्माक्षेपं च शारादि कीडाश्चित्रादिवीक्षणम् ॥ 180 ॥ अङ्गरागं च ताम्बूलं मधुरद्रव्यभोजनम् । प्रोषितप्रेयसी प्रीति प्रदमन्यदपि त्यजत् ॥ 181 ॥
सम्भ्रान्त स्त्रियों को अपने पति के परदेश जाने पर अञ्जन- सुरमे का प्रयोग
नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार बड़े आभूषण नहीं पहने। गायन, नर्तन, दिखाकर दाँतुन करना, मसखरी और आक्षेपपूर्ण वचन - व्यवहार, सोगठेबाजी जैसी क्रीड़ा, उत्तेजिक चित्रादि दर्शन, अङ्गराग - विलेपानुलेपन, ताम्बूल, मिष्ठान्न खाना और जिससे हृदय में प्रीति उत्पन्न हो ऐसे कार्य नहीं करने चाहिए।
रजस्वलायां निषेधकार्याणि
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सदैव वस्तुनः स्पर्शः रजन्या तु विशेषतः । सन्ध्याटनमुडुप्रेक्षां धातुपात्रे च भोजनम् ॥ 182 ॥ माल्याञ्जने दिवास्वापं दन्तकाष्ठं विलेपनम् । स्त्रानं पुष्टाशनादर्शालोकौ मुञ्चेद्रजस्वला ॥ 183 ॥ रजस्वला स्त्री को सर्वदा और मुख्यरूप से रात्रि में किसी वस्तु को नहीं छुा चाहिए। सन्ध्याकाल में घूमना नहीं चाहिए। नक्षत्रगणों को भी नहीं देखें व धातु के पात्र में भोजन नहीं करें। इसी प्रकार पुष्प माला नहीं पहने; आँखों में अञ्जन नहीं करे; • दिवस में निद्रा नहीं ले; दाँतुन और स्नान नहीं करे; चन्दनादि का आलेपन नहीं करे; पुष्टिकारक अन्न का आहार नहीं ले और उसे दर्पण में भी नहीं देखना चाहिए । मृत्तिका काष्ठपाषाणपात्रेऽश्रीयाद्रजस्वला ।
देवस्थाने शकृद्गोष्ठ जलेषु न रजः क्षिपेत् ॥ 184 ॥
रजस्वला स्त्री को परम्परानुसार मिट्टी, लकड़ी या पत्थर के पात्र में भोजन करना चाहिए और कभी अपनी ऋतु को देवस्थान, गोष्ठ - गौशाला और पवित्र जल में नहीं डालनी चाहिए।