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अथ दिनचर्या नामाख्यं द्वितीयोल्लासः : 71 अथ ताम्बूल विचारः
नागवल्लीदलास्वादो युज्यते क्रमुकैः समम्। एलालवङ्गकङ्कोल कर्पूराद्यन्वितैरपि ॥33॥
ताम्बूल (नागरवेल का) पान, सुपारी, इलायची, लवङ्ग, कङ्कोल, कपूर इत्यादि वस्तुओं के साथ खाना चाहिए।
चूर्णपूगफलाधिक्य साम्ये चाऽत्र सति कमात्। दुर्गन्धारङ्गसौगन्ध्य बहुरागान्विदुर्बुधाः ॥34॥
यदि ताम्बूल में चूना अधिक हो तो दुर्गन्ध देता है। सुपाड़ी अधिक हो तो रङ्ग नहीं आता। अपेक्षानुसार ही चूना हो तो सुगन्ध होती है और अपेक्षित सुपाड़ी हो तो पर्याप्त रङ्ग आता है-ऐसा पण्डितों का मत है।* *
पित्तशोणितवातार्तरूक्षक्षीणाक्षिरोगिणाम्। तच्चापथ्यं विषार्तस्य क्षीबशोषवतोरपि॥35॥
ऐसे व्यक्ति जिनको पित्त, रक्त और वात रोग हुआ हो, रुक्ष और क्षीण हुए को, आँख के रोगी, विष से पीड़ित, पागल और शोष-क्षय रोग वालों के लिए ताम्बूल कदापि गुणकारी नहीं होता है। ताम्बूलगुणाः
कामदं षड्रसाधारमुष्णं श्रेष्मापहं तथा। कान्तिदं कृमिदुर्गन्ध वातानां च विनाशनम्॥36॥ यः स्वादयति ताम्बूलं वक्त्रभूषाकर नरः। तस्य दामोदरस्येव न श्रीस्त्यजति मन्दिरम्॥ 37॥
(अब पान के गुण कहते हैं) कामोद्दीपक, षट्रस का आधार, उष्ण, कान्ति प्रदाता और कफ, कृमि, दुर्गन्ध और वायु विकार का विनाश करने वाला, ऐसे ही मुँह की शोभा उत्पन्न करने वाले ताम्बूल का जो व्यक्ति सेवन करता है उसके घर
* बृहत्संहिता में आया है कि रात में पान खाना हो तो पत्ता और दिन में खाना हो तो सुपाड़ी अधिक
डालकर खाना अच्छा होता है। इस क्रम के विपरीत खाने से उपहास ही समझना चाहिए। कक्कोल, सुपाड़ी, लवलीफल और जातीफल से युक्त पान सेवन करने से मनुष्य को मद के हर्ष से प्रसन्न करता है-पत्त्राधिकं निशि हितं सफलं दिवा च प्रोक्तान्यथाकरणमस्य विडम्बनैव।
ककोलपूगलवलीफलपारिजातैरामोदितं मदमुदा मुदितं करोति ॥ (बृहत्संहिता 77, 37) **तुलनीय- युक्तेन चूर्णेन करोति रागं रागक्षयं पूगफलातिरिक्तम्। चूर्णाधिकं वक्त्रविगन्धकारि पत्राधिकं
साधु करोति गन्धम् ॥ (बृहत्संहिता 77, 36) विष्णुधर्मोत्तर में आया है- एकपूगं सदा श्रेयो द्विपूगं निष्फलं भवेत्। अतिश्रेष्ठं त्रिपूगं च त्वधिकं नैव दुष्यति ॥ (विष्णुधर्मोत्तर. लक्षणप्रकाश में उद्धृत पृष्ठ 220)