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82 : विवेकविलास .
यदि सेवक अपने स्वामी के बहुत पास बैठे तो स्वामी को कष्ट होता है, बहुत .. दूर बैठे तो ध्यान नहीं पहुँचता, सामने खड़ा रहे तो दूसरे लोगों को क्रोध होता है और ..पीछे बैठे तो दिखाई नहीं देता है।
प्रभुप्रिये प्रियत्वं च तद्वैरिणि च वैरिता। तस्यैवाव्यभिचारेण नित्यं वर्तेत सेवकः॥91॥ : भृत्य को चाहिए कि अपने स्वामी को जो मनुष्य प्रिय हो उससे प्रीति रखे, अपने स्वामी का जो शत्रु हो उससे शत्रुता का बर्ताव करें- इस नियम में कोई अन्तर नहीं आए, ऐसा व्यवहार करना चाहिए।
प्रासादात्स्वामिना दत्तं वस्त्रालङ्करणादिकम्।। प्रीत्या धार्यं स्वयं देयं नान्यस्मै च तदग्रतः॥92॥
सेवक को सदैव स्वामी द्वारा खुश होकर प्रदान किए गए वस्त्रालङ्कार ही प्रमुखता और प्रेमपूर्वक धारण करने चाहिए और वे परिधान, गहने आदि स्वामी के देखते हुए अन्य किसी को नहीं देने चाहिए।
स्वामिनोऽम्यधिको वेषः समानो वा न युज्यते। स्त्रस्तं वस्त्रं क्षुतं जृम्भा नेक्षेतास्य स्त्रियं तथा॥93॥
यह सेवक का कर्तव्य है कि वह कभी अपने स्वामी से अधिक उत्तम और उसके जैसे ही परिधान धारण नहीं करे। यदि स्वामी के वस्त्रादि अपने स्थान से खिसक गए हों अथवा वह छींक लेता हो या जम्हाई खाता हो तो उसकी ओर नहीं देखना चाहिए। उसकी स्त्री की ओर भी नहीं देखना चाहिए।
विजृम्भणक्षुतोद्गार हास्यादीन्यिहिताननः । कुर्यात्सभासु नो नासा शोधनं हस्तमोटनम्॥94॥
सेवक को भरी सभा में जम्हाई, छींक, डकार और हास्य जैसी क्रियाएँ सदा मुँह ढककर करनी चाहिए। कभी सबके सामने अपनी नाक नहीं खुजलाना चाहिए। हाथ की अङ्गुलियाँ भी नहीं मोड़नी (कड़िके करना, अङ्गुलीभङ्ग) चाहिए।
कुर्यात्पर्यस्तिकां नैव न च पादप्रसारणम्। न निद्रां विकथां नाऽपि सभायां कुक्रियां न च ॥95॥
सेवक को कभी भरी सभा में पैर नहीं चढ़ाना चाहिए। कभी पाँव नहीं फैलाने चाहिए। न निद्रा न विकथा की क्रिया हों। सभा में कुचेष्टा को वर्जित जाने।
श्रोतव्या सावधानेन स्वामिवागनुजीविना। भाषितः स्वामिना जल्पेन चैकवचनादिभिः॥96॥ सेवक को सदा ही स्वामी की आज्ञा पर्याप्त सावधान होकर सुननी चाहिए