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84 : विवेकविलास
आपापेक्षानालापो मानहानिरदर्शनम्। दोषोक्तिरप्रदानं च विरक्तप्रभुलक्षणम्॥ 103 ॥
सङ्कटकाल पर उपेक्षा करे, सम्भाषण नहीं करे, मान हानि करे, मुँह नहीं दिखाए, दोष निकालता हो और कुछ नहीं दे- ये अप्रसन्न स्वामी के लक्षण हैं। - दोषेणैकेन न त्याज्यः सेवकः सुगुणोऽधिपैः।
धूमदोषभयाद्वह्निः किमु केनाप्यपास्यते॥ 104॥
स्वामी को चाहिए कि केवल एक ही दोष देखकर कभी अपने गुणवान् सेवक का त्याग नहीं करे। कभी धूएँ के दोष से अग्नि का कौन त्याग करता है। अथोद्यम प्रशंसामाह -
बलादविचलः थाघ्यो धनात्पुरुषसङ्ग्रहः। असदप्यय॑ते वित्तं पुरुषैर्व्यवसायिभिः॥ 105॥
सेवक-प्रमुख जिसमें बलाधिक्य हो और जो किसी से विचलित नहीं हो सके, ऐसा मनुष्य प्रशंसनीय है। बली पुरुषों का संग्रह द्रव्य होता है और वह द्रव्य यदि पूर्व में न भी हो तो व्यवसायी पुरुष उद्यम से उपार्जित कर सकते हैं। आशय है कि उद्यम से धन मिलता है, धन से योग्य सेवक रखे जा सकते हैं और योग्य व्यक्तियों का बल हो तो उसे कोई विचलित नहीं कर सकता और ऐसा पुरुष ही जग में स्तुति-पात्र है।
अनल्पैः किमहो जल्पैर्व्यवसायः श्रियो मुखम्। अर्ध्या श्रीः सा च या वृद्धथै दानभोगकरी च या॥ 106॥
इस प्रसङ्ग में अधिक क्या कहें? व्यवसाय ही लक्ष्मी के आगमन का द्वार है। इसलिए जिस लक्ष्मी से द्रव्य की वृद्धि, दान और भोग- ये तीनों चीजें सम्भव है, उस उद्यम-लक्ष्मी का अवश्य उपार्जन करना चाहिए। लाभानुसारेणभोगादीनां भागं
व्यवसाये निधौ धर्म भोगयोः पोष्यपोषणे। चतुरश्चतुरो भागानायस्यैवं नियोजयेत्॥ 107॥
उद्यम-व्यवसाय करते हुए जो लाभ लब्ध हो चतुर पुरुष को उसके चार भाग करने चाहिए। इसमें से एक भण्डार में रखना चाहिए; दूसरा धर्म-कर्म में लगाएँ; तीसरा भोगार्थ रखे और चतुर्थ भाग को कुटुम्ब के पोषण में लगाना चाहिए। . नलालयति यो लक्ष्मी शास्त्रीयविधिनामुना।
सव्यथैव स निःशेष पुरुषार्थबहिष्कृतः॥ 108॥ जो व्यक्ति शास्त्र के अनुसार कथित विधि से लक्ष्मी का लाड़ नहीं लड़ाता है,