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अथ धर्मकृत्याहारव्याधिघटिकादीनां वर्णनं नाम तृतीयोल्लास: : 91 अजीर्णेजायते त्रिदोषं -
अजीर्णे पुनराहारे गृह्यमाणः प्रकोपयेत्। वातं पित्तं तथा श्रेष्म दोषमाशु शरीरिणाम्॥23॥
यदि अजीर्ण हो गया हो और पुनः आहार कर लिया जाए तो व्यक्ति को वात, पित्त, और कफ- इन तीनों दोषों का प्रकोप हो जाता है।
रोगोत्पतिः किलाजीर्णाच्चतुर्धा तत्पुनः स्मृतम्। रसशेषामविष्टब्ध विपकवादिविभेदतः॥24॥
जो खाया हुआ हो यदि वह पचता नहीं हो तो वह अजीर्ण कहलाता है। सब रोगों की उत्पत्ति अजीर्ण से होती है। वह अजीर्ण रस-शेष, आम, विष्टब्ध और विपक्व- ऐसे चार प्रकार का होता है और दूसरे भी अजीर्ण के प्रकार कहे हैं। दोषस्य भेदलक्षणं
रसशेष भवेजम्मा समुद्रारस्तथामके। - अङ्गभङ्गश विष्टब्बे धूमोद्गारो विपक्कतः ॥25॥
यदि रसशेष अजीर्ण हो तो व्यक्ति को जम्हाइयाँ आती हैं, आम अजीर्ण हुआ हो तो डकारें आती हैं, विष्टब्ध अजीर्ण हुआ हो तो शरीर टूटता है और विपक्व अजीर्ण हो तो धूम्र बाहर गिरता हो, ऐसा प्रतीत होकर डकार आते हैं। . तस्योपचारमाह
निद्रानुवमनस्वेद जलपानादिकर्मभिः। सदा पथ्यविदां तानि शान्तिमायान्त्यनुक्रमात्॥26॥
यदि रसशेष अजीर्ण के लक्षण हो तो (भोजन पूर्व) सो रहना चाहिए। आम अजीर्ण हो तो वमन करे; विष्टब्ध अजीर्ण हो तो पसीना करे और विपक्व अजीर्ण के लक्षण हो तो जलपान करना चाहिए। इन पथ्योचार के जानकार मनुष्य उक्त चारों प्रकार के अजीर्णों का इन उपायों से क्रमशः निदानोपचार पाते हैं। अन्यदप्याह
स्वस्थानस्थेषु दोषेषु जीर्णेऽभ्यवहृते पुनः। स्यातां स्पष्टौ शकृन्मूत्र वेगौ वातानुलोम्यतः॥27॥
देह में विद्यमान कफ, वात और पित्त-ये तीनों दोष यदि अपने-अपने स्थान पर हों तो, और खाया हुआ पाचन हो, तब शरीरस्थ वायु अनुलोम (सीधी गति वाला) होने से मल-मूत्र अपने स्वाभाविक वेग से होते हैं। .
स्रोतोमुखहदुद्गारा विशुद्धाः स्युः क्षणात्तथा। पटुत्वलाघवे स्यातां तथेन्द्रियशरीरयोः॥28॥