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आर्तस्तृष्णाक्षुधाभ्यां यो वित्रस्तो वा स्वमन्दिरम् । आगतः सोऽतिथिः पूज्यो विशेषेण मनीषिणा ॥ 11 ॥
सुज्ञ पुरुष को चाहिए कि तृष्णा और क्षुधा से पीड़ित और भयग्रस्त होकर अपने द्वार पर आए लोगों को अतिथि तुल्य जानकर उनका विशेष सम्मान - सत्कार
करे ।
अथ धर्मकृत्याहारव्याधिघटिकादीनां वर्णनं नाम तृतीयोल्लास : : 89
कोविदो वाथवा मूर्खो मित्रं वा यदि वा रिपुः ।
निदानं स्वर्गभोगानामशनावसरेऽतिथिः ॥ 12 ॥
पण्डित या मूर्ख, मित्र या शत्रु चाहे कोई हों, तो भी वे यदि भोजन के अवसर अतिथि होकर आ जाएँ तो वे स्वर्ग का भोग देने वाले हैं, ऐसा स्वीकारना चाहिए । न प्रश्नो जन्मनः कार्यो न गोत्राचारयोरपि ।
नाऽपि श्रुतसमृद्धीनां सर्वधर्ममयोऽतिथिः ॥ 13 ॥
अपने द्वार पर जो भी अतिथि बनकर आया हो उससे उसके जन्म, कार्य, गोत्र और आचारादि का प्रश्न नहीं करना चाहिए। ऐसे ही उसके ज्ञान की भी पूछताछ नहीं करनी चाहिए। अतिथि रूप से आया हुआ सर्वधर्ममय होता है । तिथि - पर्व - हर्ष - शोकास्त्यक्ता येन महात्मना । श्रीभद्भिः सोऽतिथिर्ज्ञेयः परः प्राघूर्णिका मतः ॥ 14 ॥
सामान्यतया जिस महापुरुष ने तिथि, पर्व, हर्ष, शोकादि संसार के कर्म छोड़ दिए हों, उसको पण्डित पुरुषों को अतिथि जानना चाहिए और इससे कोई अन्य हो तो उसे पाहुना जानना चाहिए ।
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मन्दिराद्विमुखो यस्य गच्छत्यतिथिपुङ्गवः ।
जायते महती तस्य पुण्यहानिर्मनस्विनः ॥ 15 ॥
यदि कभी अतिथि अपने द्वार से निराश होकर लौट जाता है, तो मनुष्य चाहे
जितना जानकार हो तो भी उसके पुण्य की बड़ी हानि होती है । अतिथिर्यस्य भनिशी गृहात् प्रतिनिवर्तते ।
स तस्मै दुष्कृतं दत्वा पुण्यमादाय गच्छति ॥ 16 ॥
जिसके घर से अतिथि आशा भङ्ग होने के कारण लौट जाता है, वह अतिथि उस गृहपति को पाप देकर उसका पुण्य हर ले जाता है ।
दान माहात्म्यं
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वैष्णवधर्मशास्त्र में यह श्लोक इस प्रकार आया है- अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात् प्रतिनिवर्तते । तस्मात् सुकृतमादाय दुष्कृतं तु प्रयच्छति ॥ (विष्णुस्मृति 67, 33 )