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अथ दिनचर्या नामाख्यं द्वितीयोल्लास: : 85 उस व्यक्ति को चारों ही पुरुषार्थों (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) से बहिष्कृत अर्थात् पुरुषार्थ विहीन समझना चाहिए।
सा च सञ्जायते लक्ष्मी रक्षीणा व्यवसायतः। प्रावृषेण्यपयोवाहादिव काननकाम्यता॥ 109॥
जिस प्रकार से वर्षाकाल के मेघ से वनारण्य की शोभा अति बढ़ जाती है, उसी प्रकार उद्यम-व्यवहार करने से लक्ष्मी की पर्याप्त अभिवृद्धि होती है। पुण्यपुरुषार्थ प्रशंसामाह -
व्यवसायोऽप्यसौ पुण्य नैपुण्यसचिवो भवेत्। सफलः सर्वदा पुंसां वारिसेकादिव द्रुमः। 110॥
जिस प्रकार से जल सींचने से कोई वृक्ष फलवान होता है, वैसे ही पूर्वजन्म के पुण्यों और पुरुषार्थ या मनुष्य की निपुणता के साहचर्य से व्यवसाय सफल होता
है।
पुण्यमेव मुहुः केऽपि प्रमाणीकुर्वतेऽलसाः। निरीक्ष्य तद्वतां द्वारि ताम्यतो व्यवसायिनः ॥ 111॥
लोक में प्रायः यह देखने में आता है कि कितने ही प्रमादी लोग पुण्यात्माओं के घर पर भटकते हुए व्यापारियों को देखकर नित्य ही पुण्य का आधार, आश्रय ग्रहण करते हैं। . तदयुक्तं यतः पुण्यमपि निर्व्यवसायकम्।
सर्वथा फलवन्नात्र कदाचिदवलोक्यते॥ 112॥
यह मत अयुक्त है क्योंकि पुण्य भी सर्वथा उद्यम के अभाव में सफल हुआ इस लोक में किसी भी काल में दिखाई नहीं देता है।
द्वावप्येतौ ततो लम्या हेतु नतु पृथक्पृथक्। तेनं कार्यो गृहस्थेन व्यवसायोऽनुवासरम्॥ 113॥
पूर्वजन्म में अर्जित पुण्य और अपना पुरुषार्थ दोनों ही लक्ष्मी प्राप्ति के कारक हैं किन्तु इनमें एक के अभाव में दूसरा स्वतन्त्रतः लक्ष्मी का कारण नहीं हो सकता है। ऐसे में गृहस्थजन को नित्यप्रति उद्यम में संलग्न रहना चाहिए। उद्यमवृक्षस्य फलं
कालेऽन्त्रमुचितं वस्त्रममलं सदनं निजम्। । अर्थोऽर्थ्याप्यायकश्चैत द्वयवसायतरोः फलम्॥ 114॥ सदैव ही अवसर पर उचित भोजन करना, अवसरोचित वस्त्र पहनना, अपना