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अथ दिनचर्या नामाख्यं द्वितीयोल्लास: : 83
और उपरान्त प्रत्युत्तर देते समय स्वामी को तुच्छ वचन नहीं कहना चाहिए। आज्ञालाभादयः सर्वे यस्मिल्लाँकोत्तरा गुणाः ।
स्वामिनं नावजानीयात्सेवकस्तं कदाचन ॥ 97 ॥
जिस स्वामी में उचित आज्ञा कथन और लाभ सहित प्रमुख सर्व लोकोत्तर गुण विद्यमान् हों, उस स्वामी की सेवक को कभी भी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। एकान्ते मधुरैर्वाक्यैः सान्त्वयन्नहितात्प्रभुम् ।
वदन्यथा हि स्यादेष स्वयमुपोक्षितः ॥ 98॥
यदि कभी अवसर देखें तो सेवक को चाहिए कि स्वामी को एकान्त में ले जाकर मधुर वचनों से शान्त कर अनुचित कार्य - व्यवहार से रोकें। ऐसा नहीं करने से सेवक को स्वामी की उपेक्षा करने का दोष लगता है 1
मौनं कुर्याद्यदा स्वामी युक्तमप्यवमन्यते ।
प्रभोरग्रे न कुर्याच्च वैरिणां गुणकीर्तनम् ॥ 99 ॥
जब स्वामी किसी योग्य बात पर भी धिक्कारता, फटकारता हो, तब सेवक .को मौन धारणकर बैठना चाहिए। कभी उसके सामने उसके शत्रु का गुणगान नहीं
करें ।
प्रभोः प्रसादे प्राज्येऽपि प्रकृतीर्नैव कोपयेत् ।
व्यापारितश्च कार्येषु याचेताध्यक्षपौरुषम् ॥ 100 ॥
सेवक का कर्तव्य है कि यदि उस पर उसके स्वामी का अतिशय अनुग्रह हो तो भी प्रकृति (राज्य के सप्ताङ्गों) को प्रभावित नहीं करना चाहिए। किसी कार्य करने के लिए स्वामी ने प्रेरणा दी हो तो अपने से ऊपर के बल की अपेक्षा करनी चाहिए।
कोपप्रसादजैश्चित्रैरुक्तिभिः सञ्ज्ञयाथवा ।
अनुरक्तं विरक्तं वा जानीयाच्च प्रभोर्मनः ॥ 101 ॥
सेवक सदैव स्वामी के कोप और प्रसन्नता प्रदर्शक चिह्नों से, वचन - व्यवहार अथवा दूसरी किसी संज्ञा से उसका मन प्रसन्न है या नहीं - यह ज्ञात करना चाहिए। प्रसन्नप्रभुलक्षणं
हर्षो दृष्टे धृतिः पार्श्वे स्थिते वासनदापनम् । स्निग्धोक्तिरुक्तकारित्वं प्रसन्नप्रभुलक्षणम् ॥ 102 ॥
सेवक को देखते ही मुदित मन हो, पास रखे, खड़ा हो तो आसन के लिए कहे, सस्नेह वचन बोले, कहा हुआ कार्य करे- ये सब प्रसन्न स्वामी के लक्षण हैं 1 इत्यमनन्तर विरक्त स्वामीलक्षणं
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