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सेनापतिलक्षणं
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अथ दिनचर्या नामाख्यं द्वितीयोल्लासः : 81
अभ्यासी वाहने शास्त्रे शस्त्रे च विजयी रणे ।
स्वामिभक्तो जितायासः सेव्यः सेनापतिः श्रिये ॥ 85 ॥
सेनापति ऐसे व्यक्ति को बनाना चाहिए जो यान - वाहन, शास्त्र और शस्त्र इन तीनों का अभ्यासी हो, युद्ध में विजय वरण करने वाला, स्वामीभक्त और कितना ही - कौशल दिखाना हो तब भी कायरता को नहीं दिखाए - ऐसा सेनापति राजा को अपनी ऋद्धि के लिए नियुक्त करना चाहिए।
रण
राजधर्मेऽनुजीविवृत्तं लक्षणं -
अवञ्चकः स्थिरः प्राज्ञः प्रियवाग्विक्रमी शुचिः ।
अलुब्धः सोद्यमो भक्तः सेवकः सद्भिरिष्यते ॥ 86 ॥
अपने लिए कोई अपेक्षा न रखने वाला, स्थिर स्वभाव वाला, बुद्धिशाली, प्रियभाषी, पराक्रमी, पवित्र हृदय, निर्लोभी, उद्यमी और स्वामीभक्त - ऐसा व्यक्ति सेवक के रूप में उत्तम पुरुषों को मान्य होता है।"
सेवकः सुगुणो नम्रः स्वाम्याहूतो विशेत्सदा । स्वमार्गेणोचिते स्थाने गत्वा चासीत संवृतः ॥ 87 ॥
गुणवान सेवक को स्वामी पुकारे तब सविनय अपने उचित मार्ग से उनके पास पहुँचे और उचित स्थान पर अङ्गोपाङ्ग ढककर बैठ जाना चाहिए। आसीनः स्वामिनः पार्श्वे तन्मुखेक्षी कृताञ्जलिः ।
स्वभावं चास्य विज्ञाय दक्षः कार्याणि साधयेत् ॥ 88 ॥
अपने स्वामी के पास उचित स्थान पर आसन ग्रहणकर सेवक को, करबद्ध होकर स्वामी के मुँह की ओर देखना चाहिए और उसका स्वभाव जानकर दक्षता से कार्य सम्पादन करना चाहिए ।
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नात्यासन्नो न दूरस्थो न समोच्चासनस्थितः ।
न पुरस्थो न पृष्ठस्थस्तिष्ठेत्स सदसि प्रभोः ॥ 89 ॥
सेवक को कभी स्वामी के निकट, उससे बहुत दूर, बहुत पास, समान या ऊँचे आसन पर, उसके मुँह के सामने या पीछे भी नहीं बैठना चाहिए ।
आसन्ने स्यात्प्रभोबीधा दूरस्थेऽप्सप्रगल्भता ।
पुरः स्थितेऽन्यकोपो ऽपि तस्मिन् पश्चाद्दर्शनम् ॥ 90 ॥
शुक्रनीति में आया है— नीतिशस्त्रास्त्रव्यूहादिनतिविद्याविशारदाः ॥ अबाला मध्यवयसः शूरा दान्ता दृढाङ्गकाः । स्वधर्मनिरता नित्यं स्वामिभक्ता रिपुद्विषः ॥ शूद्रा वा क्षत्रिया वैश्या म्लेच्छा. सङ्करसम्भवाः । सेनाधिपाः सैनिकाश्च कार्यो राज्ञा जयार्थिना ॥ ( शुक्र. 2, 138-140)
** मत्स्यपुराण के 216वें अध्याय में सेवकों के लक्षणों का वर्णन 38 श्लोकों में इसी प्रकार आया है।