________________
76 : विवेकविलास
हजार, लाख, दस लाख की संज्ञा होती है और मणिबन्ध को ग्रहण करने से करोड़ की संज्ञा होती है।
व्यापारव्यवहारं
―
क्रयाणकेष्वदृष्टेषु
न सत्यङ्कारमर्पयेत् । दद्याच्च बहुभिः सार्धं वाञ्छेल्लक्ष्मीं वणिग्यदि ॥ 59 ॥
जो कोई व्यापारी लक्ष्मी की इच्छा रखता हो, उसको बिना पदार्थ देखे कभी बाना (अग्रिम) नहीं देना चाहिए और वस्तु को देखने के बाद भी देना भी पड़े तो अन्य व्यापारियों के सामने ही देना चाहिए।
कुर्यात्तत्रार्थसम्बन्धमिच्छेद्यत्र न सौहृदम् ।
यदृच्छया न तिष्ठेच्च प्रतिष्ठाभ्रंशभीरुकः ॥ 60 ॥
जहाँ मित्रता करने की इच्छा नहीं हो, वहाँ इस प्रकार से पैसे के लेन-देन का सम्बन्ध रखना चाहिए। अपने अपमान का भय रखकर स्वच्छन्दतापूर्वक कभी ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए ।
व्यापारीभिश्च विप्रेश्च सायुधैश्च वणिग्वरः ।
श्रियमिच्छन्न कुर्वीत व्यवहारं कदाचन ॥ 61 ॥
• जिसे लक्ष्मी की इच्छा हो उस उत्तम वणिक को विप्र व्यापारी के साथ और शस्त्रधारी लोगों के साथ कभी व्यापार-व्यवहार नहीं करना चाहिए ।
नटे पण्याङ्गनाया च द्यूतकारे विटे तथा ।
*
दद्यादुद्धारके नैव धनरक्षापरायणः ॥ 62 ॥
जो वणिक् अपना धन सञ्चित करना चाहता हो उसे नट, वेश्या, जुआरी और जार पुरुष को वस्तु उधार नहीं देनी चाहिए।
धर्मबाधाकरं यच्च यच्च स्यादयशस्करम् । भूरिलाभमपि ग्राह्यं पण्यं पुण्यार्थिर्भिन तत् ॥ 63 ॥
भोजदेव ने संख्या- स्थानानुसार मान इस प्रकार बताया है कि एक (1), दस (10), शत (100), सहस्र (1000), अयुत (10000), नियुत (100000), प्रयुत (1000000), अर्बुद (10000000), अन्यर्बुद (100000000), वृन्द ( 1000000000), खर्ब (10000000000), निखर्ब (100000000000), शङ्कु (1000000000000), पद्म ( 10000000000000), अम्बुराशि (100000000000000) मध्य (1000000000000000), अन्त्य (10000000000000000), पर (100000000000000000), अपर (1000000000000000000) तथा इसी प्रकार परार्ध (10000000000000000000) इन संख्याओं को उत्तरोत्तर दस-दस की वृद्धि से जानना चाहिए । इस प्रकार ये बीस संख्याओं के स्थान बताए गए हैं- एकं दश शतमस्मात् सहस्रमनु चायुतम् । नियुतं प्रयुतं तस्मादर्बुदन्यर्बुदे अपि ॥ वृन्दखर्वनिखर्वाणि शङ्कपद्माम्बुराशयः । ततः स्यान्मध्यमन्त्यं च परं चापरमप्यतः ॥ परार्धं चेति विज्ञेयं दशवृद्धयोत्तरोत्तरम् । सङ्ख्यास्थानानि कथितान्येवमेतानि विंशतिः ॥ (समराङ्गणसूत्रधार 9, 47-49)