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अथाङ्गुलगणितोच्चते –
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अथ दिनचर्या नामाख्यं द्वितीयोल्लासः : 75
एकद्वित्रिचतुः सञ्ज्ञास्तर्जन्याद्यङ्गलिग्रहे । साङ्गुष्ठानां पुनस्तासां सङ्ग्रहे पञ्च संस्थिताः ॥ 52 ॥
तर्जनी अङ्गुली से लगाकर चार अंगुलियों को ग्रहण करने से क्रमानुसार एक, दो, तीन और चार संज्ञा होती है और अङ्गूठा भी सम्मिलित कर लिए जाने पर पाँच की संज्ञा होती है।
कनिष्ठादितले स्पृष्टे षट् सप्ताष्टौ नव क्रमात् ।
तर्जन्यां दश विज्ञेया तदादीनां नखाहतौ ॥ 53 ॥ एकद्वित्रिचतुर्युक्ता दश ज्ञेया यथाक्रमम् । हस्तस्य तलसंस्पर्शे पुनः पञ्चदश स्मृताः ॥ 54 ॥
कनिष्ठिका अङ्गुली से लेकर चार अङ्गुलियों के तल को स्पर्श करने से अनुक्रम से छह, सात, आठ और नौ की संज्ञा होती है और तर्जनी को स्पर्श करे तो दस की संज्ञा जाननी चाहिए। यदि उन्हीं अङ्गुलियों के नखों को स्पर्श करें तो क्रमानुसार ग्यारह, बारह, तेरह और चौदह को संज्ञा तथा हथेली को स्पर्श करने से पन्द्रह की संज्ञा जाननी चाहिए ।
तले कनिष्ठिकादीनां षट्सप्ताष्टनवाधिकाः । क्रमशो दश विज्ञेया हस्तसञ्ज्ञाविशारदैः ॥ 55 ॥
हस्त संज्ञा के ज्ञान में पण्डित पुरुषों को कनिष्ठादि चार अङ्गुलियों के तल स्पर्श करने से अनुक्रम से सोलह, सत्रह, अठारह और उन्नीस की संज्ञा होती है । तर्जन्यादौ द्वित्रिचतुः पञ्चग्राहे यथाक्रमम् । विंशतिस्त्रिंशच्चत्वारि शत्पञ्चाशत्प्रकल्पना ॥ 56 ॥
इसी प्रकार तर्जनी आदि पाँच अंगुलियों में दो, तीन, चार और पाँच का ग्रहण करने से अनुक्रम से बीस, तीस, चालीस और पचास की संज्ञा जाननी चाहिए । कनिष्ठाद्यङ्गलितले षष्टिसप्तत्यशीतयः ।
नवतिश्च कमाज्ज्ञेयास्तर्जन्यर्धग्रहे शतम् ॥ 57 ॥
कनिष्ठादि चार अङ्गुलियों के तल के अनुक्रम से साठ, सत्तर, अस्सी और नब्बे की संज्ञा और आधी तर्जनी ग्रहण करने से सौ की संज्ञा जाननी चाहिए। सहस्त्रमयुतं लक्षं प्रयुतं चात्र विश्रुतम् ।
मणिबन्धे पुनः कोटिं हस्तसञ्ज्ञाविदो विदुः ॥ 58 ॥
इसके उपरान्त अनुक्रम से अङ्गुली का आधा भाग ग्रहण करने से हजार, दस