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अथ दिनचर्या नामाख्यं द्वितीयोल्लासः : 73 प्रसूनमिव निर्गन्धं तडागमिव निर्जलम् ! कलेवरमिवाजीवं को निषेवेत निर्धनम्॥43॥
जैसे सुगन्ध रहित फूल को कोई सम्मान नहीं देता, जैसे जलहीन जलाशय को आदर नहीं मिलता और जिस प्रकार जीव रहित काया को आदर नहीं मिलता वैसे ही द्रव्यहीन पुरुष की स्थिति है, उसकी कोई सेवा नहीं करता। सुभाषितानि
अर्थ एव ध्रुवं सर्व पुरुषार्थनिबन्धनम्। अर्थेन रहिताः सर्व जीवन्तोऽपि शवोपमाः॥44॥
अर्थ निश्चित ही समस्त पुरुषार्थ का मूल कारण है। इसलिए अर्थ से रहित सब पुरुष जीवित होते हुए भी मरे हुए के समान हैं।
कृष्यादिभिः स चोपायैर्भूरिभिः समुपाय॑ते। दयादानादिभिः सम्यग्धन्यैर्धर्माय स ध्रुवम्॥45॥
धर्म-धन्य पुरुष खेती, व्यापारादि अनेक उपायों द्वारा द्रव्योपार्जन करता है और अनुकम्पादान, पात्रदान इत्यादि प्रमुख सत्कार्य करके सद्धर्म का ओर ही उसका व्यय करता है। कृषिकर्मप्रशंसाह
वापकालं विजानाति भूमिभागं च कर्षकः। कृषि साध्यां पथि क्षेत्रं यश्चोज्झति स वर्धते॥46॥
जो किसान फसल की बुवाई का काल, भूमि का भाग और भूमि के उपजनिपज के गुणधर्म को जानता है और मार्गस्थ खेत को त्याग देता है वह कृषि में अवश्य लाभ प्राप्त करता है।
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* महर्षि काश्यप का मत है कि भूमि के पास नित्य जलस्रोत सुलभ होने चाहिए और भूमि में जल को स्वीकृत करने का गुण हो। ऐसे लक्षणों से संयुक्त होने पर उसे खेतों, खलिहानों के लिए ग्राह्य करना चाहिए। राजा को चाहिए कि वह शुभ लक्षणों वाली भूमि को देखकर उसे कृषियोग्य भूमि के रूप में अधिगृहीत करें। भूमि की शुभाशुभता की परीक्षा के लिए ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए जो कि गुणों, लक्षणों के आधार पर उसका वर्गीकरण करने की पर्याप्त दक्षता रखते हो। भूमिविद् चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र हो, उनके लिए यह भी आवश्यक है कि वे भूमिगत जलानुसन्धान की विधियों के ज्ञाता हों और कृषिशास्त्र विशारद भी होने चाहिए-सुलभोदकनिस्रावां सुलभस्वीकृतोदकाम्। एवं लक्षणसंयुक्तखल भूमिवृतां क्वचित् ।। वसुधां भूपतिर्वीक्ष्य गृह्णीयादुत्तमामिह । भूपरीक्षाक्रविदो गुणाढ्या नृपचोदिताः ॥ ब्राह्मणाः क्षत्रिया वापि विशः शूद्रास्तु वा पुनः । दकार्गल प्रमाणज्ञाः कृषिशास्त्रविशारदाः ॥ (काश्यपीयकृषिसूक्ति 1, 2, 45-47)