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अथ दिनचर्या नामाख्यं द्वितीयोल्लासः : 77 पुण्यार्थी पुरुषों को धर्म की हानि अथवा अपयश मिलता हो, ऐसा पदार्थ भलेहि कितना ही लाभ क्यों न मिलता हो, तो भी नहीं खरीदना चाहिए। अन्यदप्याह -
धनं यच्चाय॑ते किञ्चित्कृटमानतुलादिभिः। नश्यतत्रैव दृश्येत तप्तपात्रेऽम्बुबिन्दुवत्॥ 64॥
जो लोग खोटे, अमानक बाट और तराजू रखकर थोड़ा-बहुत धन अर्जित करते हैं, उनका वह धन उसी प्रकार नष्टशील होता है जैसे तप्त कड़ाह पर गिरते हुए जलबिन्दु दिखाई नहीं देते हैं। . तथा चान्यव्यवहारं -
गर्वं न्यासापहारं च वणिक्पुत्रः परित्यजेत्।। अङ्गीकुर्यात्क्षमामेकां भूपतौ दुर्गतेऽपि च॥ 65॥
व्यापारी को सदैव अपने व्यवहार में गर्व का विचार और विश्वासघात का भाव त्याग देना चाहिए। उसे राजा और रङ्क में समान, क्षमा भाव ही धारण करना चाहिए।
स्वच्छस्वभावा विश्वस्ता गुरुनायकबालकाः। देवा वद्धाश्च न प्राज्ञैर्वञ्चनीयाः कदाचन। 66॥ समझदार मनुष्यों को चाहिए कि निर्मल स्वभाव वाले और अपने गुरु,
* तुला को बहुत पवित्र माना गया है। इसे मानक ही बनाए रखना चाहिए। चाणक्य ने तुला के
सन्तुलित और शुद्ध होने पर जोर दिया है। प्राचीनकाल में महादान के प्रयोजन से राजप्रासादों में तुला-स्थान रखे जाते थे। मत्स्यपुराण के 274वें अध्याय में तुलापुरुषदान का महत्त्वपूर्ण कहा गया है-'आद्यं तु सर्वदानानां तुलापुरुष सञकम्।' यही मान्यता अग्निपुराण के 210वें अध्याय में है जिसमें सोलह महादान बताए गए हैं। इसी प्रकार बृहत्संहिता के 26वें अध्याय में आषाढी तौल का वर्णन आया है। वराहमिहिर ने तुला को ब्रह्मा की पुत्री होकर भी आदित्या कहा है, वह कश्यप गोत्र की है- ब्रह्मणो दुहितासि त्वमादित्येति प्रकीर्तिता। काश्यपी गोत्रतश्चैव नामतो विश्रुता तुला ॥ (बृहत्संहिता 26, 5) तुला के लक्षण के लिए कहा गया है कि स्वर्ण का तुलादण्ड श्रेष्ठ है, चाँदी का मध्यम और इन दोनों. के नहीं मिलने पर खेर की लकड़ी का तुलादण्ड बनाना चाहिए या फिर, जिस बाण से कोई वेधित हुआ हो, उसका तुलादण्ड बनाया जा सकता है। इसमें तुलादण्ड बारह अङ्गल प्रमाण का हो सकता है- हैमी प्रधाना रजतेन मध्या तयोरलाभे खदिरेण कार्या। विद्ध पुमान् येन शरेण सा वा तुला प्रमाणेन भवेद्वितस्तिः ॥ (तत्रैव 9) मानसोल्लास में तुलाविचार इस प्रकार आया है- कांस्यपात्रद्वयं वृत्तं समान रूपनामतः । चतुश्छिद्रसमायुक्तं प्रत्येकं रज्जुयन्त्रितम् ॥ दण्डः कांस्यमयः शूक्ष्णो द्वादशाङ्गुलसंमितः । पक्षद्वयमानश्च प्रान्तयोर्मुद्रिकायुतः । मध्ये तस्य प्रकर्तव्यः कण्टक: कांस्यनिर्मितः । पञ्चाङ्गलामतस्तस्य मूले छिद्रं प्रकल्पयेत् ॥ निवेश्य छिद्रदेशेऽस्य शलाकाङ्गलमात्रिका । शलाके प्रान्तयोस्तस्याः कीलयेत् तोरणाकृतिः॥ तोरणस्य शिरोमध्ये कर्त्तव्या लघुकुण्डली। तत्र रडं निषनीयात् तां धृत्वा तोलयेत् सुधीः ।। कलञ्जमानकं द्रव्येनेकदेशे निवेशयेत्। अन्यतो जलबिन्दुस्तु तोलनार्थ विनिक्षिपेत् ॥ कण्टके च समे जाते तोरणस्य च मध्यमे। तदा समं विजानीयात् तोलनं मान कोविदः ॥ (मानसो. प्रथमभाग, रत्नपरीक्षणं)