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70 : विवेकविलास
देवता
भागों में पहले चार भाग देव के, दूसरे दो भाग दैत्य के, तीसरे दो भाग मनुष्य के और चौथा एक भाग राक्षस का जानना चाहिए।
राक्षसान् विनिवृत्यैव शय्यादिप्वप्ययं विधिः । देवता मनुष्य
देवता राक्षस राक्षस
राक्षस | देवता
मनुष्य
म पङ्काञ्जनादिभिर्लिप्तं कुट्टितं मूषकादिभिः। तुन्नितं पाटितं दग्धं दृष्ट्वा वस्त्रं विचारयेत्॥31॥ उत्तमो दैवते लाभो दानवे रोगसम्भवः। मानुषे मध्यमो लाभो राक्षसे मरणं पुनः॥32॥
वस्त्र कीचड़ में सन गया हो या काजल लग गया हो, चूहों ने काटा हो, तुना हुआ, फटा और जला हुआ हो तो उक्त चक्रानुसार देखकर ही विचार करना चाहिए। इस प्रकार से देवता के भाग में कीचड़ से सना हुआ, फटा हुआ आदि हो तो उत्तम लाभ होता है। दैत्य के भाग में हो तो बीमारी की आशङ्का जाने। मनुष्य के भाग में हो तो मध्यम लाभ हो और राक्षस के भाग में हो तो मृत्यु या मृत्युतुल्य कष्ट होता है।
* यह निर्देश वराहमिहिराचार्य की उक्तियों का अनुवर्ती है- लिसे मषीगोमयकर्दमाद्यैश्छिन्ने प्रदग्धे
स्फुटिते च विन्द्यात्। पुष्टं नवेऽल्पाल्पतरं च भुक्ते पापं शुभं चाधिकमुत्तरीये॥ (बृहत्संहिता 71, 10) इसी प्रकार श्रीपति का कथन है कि काजल, पङ्क, गोबर आदि से लिप्त किसी प्रकार के धातु आदिक से कर्तित वस्त्र शुभ नहीं होता। यह चिन्ताकारक होता है। ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति का भविष्य अशुभ मार्ग पर जाएगा, ऐसा कहा गया है-कज्जल कर्दमगोमय लिप्ता वासंसि दग्धवति स्फुटिते वा। चिन्त्यमिदं नवधाभि-हितेस्मिन्निष्टमनिष्ट फलं च सुधीभिः ।। (रत्नमाला 19, 7) शय्या, आसन, खड़ाऊ आदि यदि आग से जल जाए या दग्ध हो जाए तो ऐसे नियमानुसार ये त्याज्य है अथवा शुभ या गृहीत है, ये विचार किया जाना चाहिए। इसके लिए नौ विभाग की एक सारणी बनाकर वहाँ देवताओं की स्थापना करें जिसमें मध्य के तीन भागों में राक्षस तथा शेष पास के दो विभागों में नरों की स्थापना करें और इस प्रकार की स्थिति में फल जाने- निवसन्त्यमरा हि वस्त्रकोणे मनुजाः पाशदशान्तमध्ययोश्च। अपरेऽपि च रक्षसां त्रयोंशाः शयने चासनपादुकासु चैवं। (तत्रैव 19, 3) देव मनुष्य और राक्षस सभी के विभागों में प्रान्त अर्थात् वस्त्र की सीमा के अन्तिम छोरों पर जलने आदि से भविष्य में अनिष्ट होने की सूचना मिलती है। एक प्रकार से ऐसा सङ्केत प्राप्त राक्षस अंश में होने पर मृत्यु का सङ्केत होता है- भोगप्राप्तिर्देवताशे नरांशे पुत्राप्तिः स्याद्राक्षसांशे च मृत्युः । प्रान्ते सर्वाशेष्वनिष्टं फलं स्यात्प्लुष्टे वस्त्रे नूतने साध्वसाधु ॥ (तत्रैव 19, 4) भट्टोत्पल ने बृहत्संहिता की विवृत्ति में इस सम्बन्ध में महर्षि गर्ग की उक्ति को उद्धृत किया हैवस्त्रल्पुत्तरलोमं तु प्राग्देशं नवधा भवेत्। त्रिधा दशान्तपाशान्ते त्रिधा मध्यं पृथक्-पृथक् ॥ चतुर्यु कोणेषु सुराः पाशान्ते मध्यमेनराः दशान्ते च नरा भूयो मध्यभागे निशाचराः ॥ (बृहत्संहिता 71, 10 पर उद्धृत)