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अथ दिनचर्यायां प्रथमोल्लासः : 53 द्वारशाखानुसारेण अ दृष्टिं -
द्वारशाखाष्टभिर्भागैरधःपक्षाद्विर्धायते। मुक्त्वाष्टमविभागं च यो भागः सप्तमः पुनः॥ 158॥ तस्यापि सप्तमे भागे गजांशस्तत्र सम्भवेत्। प्रासादे प्रतिमादृष्टिनियोज्या तत्र शिल्पिभिः॥ 159॥
देवालय में सम्मुख द्वार की शाखा के नीचे से 8 भाग कर उसमें आठवाँ भाग सबके ऊपर आया हुआ त्याग दें और उसके नीचे का जो सातवाँ भाग हो उसके नीचे के पुनः सात भाग करें और उन सातों में से नीचे के भागों को छोड़ दें और ऊपर का जो सातवाँ भाग रहे उसमें अष्टमांश सम्भव है। उस अंश में प्रासाद के अन्दर रही हुई प्रतिमा की दृष्टि शिल्पियों को रखनी चाहिए। अर्चा विधानोपरान्त भूमिपरीक्षणं
अवृत्ता भूरदिग्मूढा चतुरस्त्रा शुभाकृतिः। त्र्यहबीजोद्गमा धन्या पूर्वेशानोत्तरप्लवा॥ 160.॥
जिस स्थापन पर देवालय का निर्माण करना हो, भूमि वृत्ताकार या दिशा भ्रम करने वाली नहीं होनी चाहिए। ऐसी भूमि जो चतुरस्र या चौकोर, अन्य शुभाकृति वाली वपन किए गए बीजों को तीन दिवस में अङ्करित करने वाली हो और पूर्व, उत्तर अथवा ईशान कोण की ओर झुकी हुई हो तो वह श्रेष्ठ जाननी चाहिए।
व्याधिं वल्मीकिनी नैःस्व्यं सुषिरा स्फुटिता मृतिम्। दत्ते भूःशल्ययुरदुखं शल्यज्ञानमथोच्यते॥ 161॥
यदि भूमि वल्मीक या दीमक लगी हो तो वह व्याधिकारक होती है, पोली या सुषीर भूमि हो तो दारिद्र्य करती है, कटी-फटी हो तो मृत्यु तुल्य कष्ट देती है और जिस भूमि में अस्थि, कोयला आदि दबे हुए हों तो वह दुःख दायिनी होती है। आगे मैं शल्य ज्ञात करने की विधि बताता हूँ। अथ शल्यविचारमाह -
बकचतैहसपयान् क्रमाद्वर्णानिमान्नव। नवकोष्ठकृते भूमि भागे प्राच्यादिता लिखेत्॥ 162॥
जिस भूमि पर भवन, देवालय बनवाना हो, उस पर एक चतुष्कोण शल्योद्धार यन्त्र की रचना करें और उसमें नौ कोष्ठक बनाएँ। चतुष्कोण के इसमें पूर्व से लगाकर प्रदक्षिण क्रम से ईशान तक आठों दिशा व कोणों को लिखें और मध्य के