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अथ दिनचर्यायां प्रथमोल्लास : : 49
भालाना साहनुग्रीवाह्यन्नाभीगुह्यमूरुकौ । जानुजङ्घाङ्घ्रि चेत्येकादशाङ्क स्थानकानि तु ॥ 137 ॥
प्रतिमाओं में क्रमशः 1. कपाल, 2. नासिका, 3. ग्रीवा, 4. गला, 5. हृदय, 6. नाभि, 7. गुह्य, 8. उरू, 9. जानु, 10. जङ्घा और 11. पाँव - ये ग्यारह स्थान अङ्गविभाग के कहे गए हैं।
चतुः पञ्च चतुर्वह्नि सूर्यार्कार्क जिनाब्धयः ।
जिनाब्धयश्च मानाङ्का ऊर्ध्वा ऊर्ध्व स्वरूपके ॥ 138 ॥
प्रमाणानुसार उक्त अंशों में कपाल के 4 अंश, नासिका के 5, ग्रीवा के 4, कण्ठ के 3, हृदय के 12, नाभि के 12, गुह्य के 12, उरू के 24, जानु के 4, जङ्घा के 24 और पाँव के 4 इस प्रकार से स्थानक प्रतिमा के 108 अंश ऊँचाई के कहे गए हैं। भालाना साहनुग्रीवाहृन्नाभीगुह्यजानु च। अष्टावासीबिम्बस्याङ्कानां स्थानानि पूर्ववत्॥ 139 ॥ इसी प्रकार स्थानक प्रतिमा में कपाल के 4, नासिका के 5, कण्ठ के 3, हृदय के 12, नाभि पर 12, गुह्याङ्ग के 12 और उरू के 4 इस प्रकार आसनस्थ मूर्ति के आठ स्थान और 56 अंश कहे गए हैं। अथ जीर्णमूर्तिः
ग्रीवा के 4,
अतीताब्दशतं यत्स्याद्यच्च स्थापितमुत्तमः ।
तद्व्यङ्गमपि पूज्यं स्याद्विम्बं तन्निष्फलं न हि ॥ 140 ॥
ऐसी प्रतिमा जिसकी प्रतिष्ठा शताब्दी पूर्व हुई हो अथवा किसी उत्तम आचार्य के हाथों स्थापित की गई हो, तो वह प्रतिमा भङ्ग होने के बावजूद भी पूजा योग्य है। उसका पूजन निष्फल नहीं जाता है।
पुन: संस्कार्य प्रतिमाः
धातुलेपादिजं बिम्बं व्यङ्गं संस्कारमर्हति । काष्ठपाषाणानिष्पन्नं संस्कारार्हं पुनर्नहि ॥ 141॥
* रूपमण्डनं में उक्त दोनों श्लोकों का मत इन शब्दों में है - अतीतब्दः शता मूर्तिः पूज्या स्यान्महत्तमैः । खण्डता स्फुटिताऽप्यर्च्य अन्यथा दुःखदायका ॥ धातुरत्नविलेपोत्था व्यङ्गाः संस्कारयोग्यका । काष्ठपाषाणजा भग्नाः संस्कारार्हा न देवताः ॥ (रूप. 1, 11-12)
तुलनीय आचारदिनकर — धातुलेप्यमयं सर्वं व्यङ्गं संस्कारमर्हति । काष्ठपाषाण निष्पन्नं संस्कारार्हं पुनर्नहि ॥ ( आचार. 23वाँ उदय)
अपराजितपृच्छा में प्रतिमा के जीर्णोद्धार के लिए कहा गया है— जीर्णोद्धार क्रमयुक्तिं प्रतिष्ठादिभिराचरेत् । प्रतिष्ठानन्तरे प्राज्ञः कुर्यादष्टमहोत्सवान् ॥ याः खण्डिताश्च दग्धाश्च विशीर्णाः स्फुटितास्तथा । न तासां मन्त्रसंस्कारो गतासुस्तत्र देवता ॥ परे वर्ष शताद्देवा: स्थापिताश्च महत्तरैः । सान्निध्यं सर्वकालं तु व्यङ्गितानपि न त्यजेत् ॥ पतनाद् व्यङ्गिता देवास्तेषां दुरितमुद्धरेत् । त्रपनोत्सवयात्रासु पुनारूपाणि चाचरेत् ॥ नवैरेवापि जीर्णै र्वा ह्यर्चा या चाऽपि शोभना । परिष्कारेऽपरिष्कारे तत्रदोषो न विद्यते ॥ ( अपराजित. 215, 16-20 )
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