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अथ दिनचर्यायां प्रथमोल्लास: : 33 मन्दं मन्दं ततः कृत्वा निरोधस्य विमोचनम्। निःशल्यादुष्टमृत्पिण्डे नोन्मृज्यं च गुदान्तरम्॥54॥
समझदार पुरुष को चाहिए कि मल-मूत्र करने के लिए बैठते समय वायु का प्रवाह जिस ओर से हो उस ओर अपनी पीठ न रखे। स्त्रियों अथवा अपने पूज्य पुरुषों की दृष्टि नहीं पड़ने दे। पत्थर पर दोनों पैर रखते हुए इस तरह बैठकर धीरे-धीरे मल-मूत्र का त्याग करने के बाद ऐसी मिट्टी जिसमें कण्टक व कङ्कड़ नहीं हो, लेकर अपने मलद्वार की शुद्धि करनी चाहिए। अथ क्षुत्शुक्रकृन्मूत्रविचारः
क्षुतशुक्रशकृन्मूत्रं जायते युगपद्यदि। तत्र मासे दिने तत्र वत्सरान्ते मृतिर्भवेत्॥ 55॥
यदि किसी को छींक, धातुक्षय, मल और मूत्र- ये चारों ही एक साथ हों तो एक वर्ष के अन्त में उसी मास और उसी दिन में उस मनुष्य की मृत्यु जाननी चाहिए।
विमुच्यान्याः क्रियाः सर्वा जलशौचपरायणः। गुदं लिङ्ग च पाणी च पूतया शोधयेन्मृदा॥56॥
जलशुद्धि की ओर ध्यान रखने वाले पुरुषों को चाहिए कि वे अन्य समस्त कार्य छोड़कर पहले मलद्वार, जननेन्द्रिय और हाथ शुद्ध मिट्टी से साफ करे। व्यायामनियमः
श्रूष्माधिकेन कर्तव्यो व्यायामस्तद्विनाशकः। ज्वलिते जाठरेऽग्नौ च न कार्यों हितमिच्छता॥57॥ .
जिसके शरीर में श्लेष्माधिक्य या कफ की अधिकता हो, उसको कफ के विनाश करने हेतु व्यायाम (कसरत) करना चाहिए। यदि पेट में जठराग्नि प्रदीप्त हुई हो अर्थात् बहुत भूख लगी हो तो व्यायाम कदापि नहीं करना चाहिए।
गतिशक्त्यर्धमेवासौ क्रियमाणः सुखावहः। . गात्रस्वेदाधिकस्त्वत्र सोऽश्वानामिव नोचितः॥58॥ ___ जितनी अपनी चलने की शक्ति हो, उससे आधा ही व्यायाम करना सुखदायक है। यदि व्यायाम करते हुए अश्व की भाँति शरीर में पसीना होता हो तो व्यायाम करना उचित नहीं है।
* यथा-वाय्वग्निविप्रमादित्यमप: पश्यंस्तथैव गाः। न कदाचन कुर्वीत विणमूत्रस्य विसर्जनम्॥ प्रत्यग्निं . प्रतिसूर्यं च प्रतिसोमदोकद्विजान्। प्रतिगां प्रतिवातं च प्रज्ञा नश्यति मेहतः ॥ एकलिङ्गे गुदे तिलस्तथैकत्र करे दश। उभयोः सप्त दातव्या मृदः शुद्धिमभीप्सता ॥ (मनु. 4, 48 एवं 52 तथा 5, 136)