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38 : विवेकविलास
उक्तं च
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मातापित्रोरभरकः क्रियामुद्दिश्य याचकः I
मृतशय्या प्रतिग्राही न भूयः पुरुषो भवेत् ॥ 78 ॥
ऐसा कहा भी गया है कि जो व्यक्ति अपने माता-पिता का पालन नहीं करे, कोई धर्मक्रिया के हेतु अर्थात् अमुक धर्मकृत्य करना है - ऐसा कहकर भी याचकवृत्ति अपनाए और मृतक का शय्यादान ले, उसको पुनः मनुष्य जन्म का मिलना दुर्लभ है। वृद्धौ च मातृपितरौ साध्वी भार्या सुतः शिशुः । अप्यकार्यशतं कृत्वा भर्तव्या मनुरब्रवीत् ॥ 79 ॥
अपने वृद्ध माता-पिता, शीलवती स्त्री, और अज्ञानी पुत्र - इनका पोषण सैकड़ों अकार्य करके भी करना चाहिए - ऐसा मनु का कथन है। सेवाफलं
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अनुपासितवृद्धानामसेवितमहीभुजाम् ।
अवारमुख्यासुहृदां दूरे धर्मार्थतुष्टयः ॥ 80 ॥
जो व्यक्ति स्थविर की सेवा नहीं करते हैं उनसे धर्म दूर रहता है; जो राज्य की सेवा नहीं करते उनसे द्रव्य दूर रहता है और जो वेश्या की मैत्री नहीं रखते अर्थात् उन्हें देखकर वैराग्यवान् होने में सन्तुष्ट नहीं होते, उनसे विषय सन्तोष दूर रहता है। स्नानोपरान्तपूजादीनां -
ततः स्नात्वा शिरःकण्ठावयवेषु यथोचितम् । पवित्रयितुमात्यानं जलैर्मन्त्रक्रमेण वा ॥ 81 ॥
सामान्यतया देश-काल और अपनी प्रकृति को उचित लगे, वैसी ही बाह्यशुद्धि के हेतु शिरःस्नान (आमस्तक स्नान), कण्ठस्नान (आकण्ठ स्नान), अवयव स्नान (हाथ-पाँव इत्यादि की सफाई) करना चाहिए - ऐसा नियम है किन्तु ऐसे में यदि कोई पीड़ा हो तो मन्त्रस्नान भी किया जा सकता है।
वस्त्रशुद्धिमनः शुद्धिः कृत्वा त्यक्त्वा च दूरतः । नास्तिकादीनधः क्षिप्त्वा पुष्पं पूजागृहान्तरे ॥ 82 ॥ आश्रयन्दक्षिणां शाखामर्चयन्नथ देहलीम् । तामस्पृशन्प्रविश्यान्तदक्षिणनाङ्घ्रिणा ततः ॥ 83 ॥
इस प्रकार स्नानादि के बाद शुद्धवस्त्र धारणकर मन शुद्ध करके और नास्तिक, व्यसनी इत्यादि लोगों की दृष्टि से दूर रहकर पूजास्थल पर पुष्प इत्यादि सामग्री से द्वार की दाहिनी ओर खड़े रहकर उक्त पूजागृह की चौखट का पूजन करना चाहिए । इसके बाद चौखट को पाँव से स्पर्श नहीं करते हुए दाहिना पाँव आगे बढ़ाकर भीतर