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42 : विवेकविलास
विषयक कोई कार्य करना, किसी पर विजय, विद्यारम्भ करना, राजा - युवराजादि का पट्टाभिषेक, मन्त्री पदारोहण - शपथ लेना इत्यादि कार्यों में अथवा किसी भी शुभमाङ्गलिक कार्य में चन्द्रनाड़ी को प्रशस्त जानना चाहिए। स्थानकदिक्स्थितिं
अग्रस्थो वामगो वाऽपि ज्ञेयः सोमदिशि स्थितः । पृष्ठस्थो दक्षिणस्थश्च विज्ञेयः सूर्यभागभाक् ॥ 102 ॥
अपने आगे अथवा वाम भाग में खड़ा कोई व्यक्ति चन्द्र-दिशा में और पीछे या दक्षिण भाग में खड़ा हुआ व्यक्ति सूर्य दिशा में है, ऐसा जानना चाहिए। प्रश्न प्रारम्मणे वाऽपि कार्याणां वामनासिका । पूर्णा वायोः प्रवेशश्चेत्तदासिद्धिरसंशयम् ॥ 103 ॥
जब कभी किसी कर्म का प्रश्न या आरम्भ करते समय बायीं नासिका में पूर्ण 'वायु प्रवेश करता हो या बायाँ स्वर प्रवहमान हो तो कार्य की निश्चित ही सिद्धि जाननी चाहिए।
युद्धसम्बन्धीप्रश्नं
योद्धा समाक्षराह्वाश्चेद्दूतो वामावहः स्थितः ।
तदा जय विपर्यासे व्यत्ययं मतिमान् वदेत् ॥ 104 ॥
युद्ध सम्बन्धी प्रश्न में योद्धा के अक्षर दो, चार आदि सम संख्या में हो और प्रश्नकर्त्ता दूत की चन्द्रनाड़ी बहती हो तो युद्ध में विजय कहनी चाहिए । यदि संग्रामकर्ता के नाम के तीन, पाँच इत्यादि विषमाक्षर हो और दूत की सूर्यनाड़ी चलती हो तो युद्ध में पराभव होगा, ऐसा कहना चाहिए ।
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प्रवाहो यदि वार्केन्द्वोः कथं चिद्युगपद्भवेत् ।
विजयादीनि कार्याणि समान्येव तदादिशत् ॥ 105 ॥
यदि सूर्यनाड़ी और चन्द्रनाड़ी साथ-साथ प्रवाहित हो तो विजयादि कार्य सामान्य कहना चाहिए अर्थात् किसी भी पक्ष की हार या जीत न होते हुए दोनों पक्ष बराबर रहेंगे- ऐसा कहना चाहिए।
मुद्गलाद्यैर्गृहीतस्य विषार्तस्याथ रोगिणः ।
प्रश्ने समाक्षराह्वश्वेदित्यादि प्राग्वदादिशत् ॥ 106 ॥
मुगल वाले ( जिसके हाथ में मुद्गल हो ऐसे अखाड़ा - पहलवान) मनुष्य अथवा विष-विकार से पीड़ित रोगी का प्रश्न हो तो उपर्युक्त रीति के अनुसार नाम
वराहमिहिर कृत योगयात्रा, बृहद्यात्रा, लघुटिक्कणिका, नरपति कृत जयचर्या, रामवाजपेयी कृत समरसार आदि में यह विषय विस्तार से आया है।