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36 : विवेकविलास
विलिख्य रसनां जिह्वा निर्लेखिन्या शनैः शनैः। शुचिप्रदेशे प्रक्षाल्य दन्तकाष्ठं पुनस्त्यजेत्॥ 68॥
हमेशा दन्तधावन के बाद दातुन को चीरकर उसके टुकड़े से शनै-शनै जिह्वा पर जमा हुआ मैल उतारना चाहिए। इसके बाद दातुन को धोकर किसी शुद्ध स्थान में डाल दिया जाना चाहिए। त्यक्तदन्तधावनफलं
सम्मुखं पतितं स्वस्य शान्तानां ककुभां च यत्। ऊर्ध्वस्थं सुखदं तत्स्यादन्यथा दुःखहेतवे॥69॥ ऊर्ध्व स्थित्वा क्षणं पश्चात्पतत्येव यदा पुनः। मिष्टाहारस्तदादिष्टस्तद्दिने शास्त्रकोविदः॥70॥
दातुन करने के बाद फेंका गया काष्ठ यदि अपने सामने पड़े, शान्त दिशा में पड़े अथवा औंधे मुख पड़े तो सुख देता है। विपरीत रीति से पड़े तो दुःखकारक समझना चाहिए। यदि वह थोड़ी देर ऊँचा रहकर नीचे पड़े तो उस दिन मिष्टान्न की प्राप्ति होती है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का मत है।" पुनः दन्तधावननिषेधमाह -
कासश्वासज्वराजीर्ण शोथतृष्णास्यपाकयुक्। न च कुर्याच्छिरोनेत्रहत्कर्णामयवानपि॥71॥
ऐसे व्यक्ति यदि दातुन नहीं करे तो विचारणीय नहीं है जिनको खाँसी हो, श्वास या अस्थमा की परेशानी हो, ज्वर, अजीर्ण, सूजन, तृष्णा, मुख में छाले हो अथवा मस्तक, नेत्र, हृदय, और कान की पीड़ा हो। अथ नेत्यादि क्रियावर्णनं- . .
प्रातः शनैः शनैर्नस्यो रोगहृच्छुद्धवारिणा। गृह्णन्तो नासया तोयं गजा गर्जन्ति नीरुजः॥72॥
सुबह उठकर धीरे-धीरे नाक के रास्ते शुद्ध जल पीना चाहिए। इससे रोगों का विनाश होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि हस्ती नाक से पानी पीते हैं जिससे वे निरोगी होकर चिङ्घाड़ते हैं।
* तुलनीय – प्रक्षाल्य जह्याच्च शुचिप्रदेशे। (बृहत्संहिता 85, 8 एवं कूर्मपुराण उ. 18, 21) **उक्त श्लोक वराहमिहिर के मत से तुलनीय है कि जिस ओर से भक्षण किए थे, उसी ओर से प्रशान्त दिशा में जाकर दन्तकाष्ठ गिरे तो शुभ है। यदि खड़ा हो जाए तो अतिशुभ और इससे उलटा गिरे तो अशुभ होता है। खड़ा होकर गिर जाए तो मिष्ठान का लाभ करता है- अभिमुखपतितं प्रशान्तदिक्स्थं शुभमतिशोभनमूर्ध्वसंस्थितं यत्। अशुभकरमतोऽन्यथा प्रदिष्टं स्थितपतितं च करोति मृष्टमन्नम् ।। (बृहत्संहिता दन्तकाष्ठलक्षणाध्याय 85, 9)