________________
32 : विवेकविलास
प्रातःसन्ध्याकालमाह
नक्षत्रेषु समस्तेष भ्रष्टतेजस्सु भास्वतः। यावदोदयस्तावत् प्रातःसन्ध्याभिधीयते॥49॥
जब सभी नक्षत्र निस्तेज अर्थात् दिखाई देना बन्द हो जाते हैं और सूर्यबिम्ब का आधा भाग उदित हुआ दिखाई देता है तब प्रातः सन्ध्या का समय हो गया है, ऐसा कहा जाता है। शौचयोग्यस्थानानि -
भस्मगोमयगोस्थानवल्मीकशकृदादिमत्। उत्तम द्रुमसप्तार्चिर्गिनीराश्रयादि च॥50॥ स्थानं चितादिविकृतं तथाकूलं कषातटम्। वर्जनीयं प्रयत्नेन वेगाभावेऽन्यथा नतु॥ 51॥
ऐसा स्थान जहाँ पर कि भस्म या राख पड़ी हो, जहाँ बैल, घोड़े और गायें चरती हों या बाँधी जाती हों, जहाँ वल्मीक (बाँबी), मलादि मलीन वस्तु, उत्तम वृक्ष या अग्नि हो, जो आवा-जाही का मार्ग हो, पानी का स्थान या विश्रान्ति लेने की जगह हो और श्मशान अथवा नदी का किनारा हो- ऐसे स्थानों पर यदि बहुत उतावल न हो तो मल-मूत्रोत्सर्ग नहीं करना चाहिए।"
वेगान धारयेद्वातविण्मूत्रतृक्षुतक्षुधाम्। निद्राकासश्रमश्वासज़म्भा श्रुच्छदिरेतसाम्॥ 52॥
यदि अधोवायु, मल, मूत्र, तृष्णा, छींक, डकार, निद्रा, खाँसी, श्रम करने से बढ़ा हुआ श्वासोच्छास (हाँपना), जम्हाई, अश्रु, वमन और वीर्य- ये स्वभाव से होते हों तो इसकी गति को रोकने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इत्यमनन्तर शौचाचारः
गन्धवाहप्रवाहस्य निजं पृष्ठमनपर्यन्। स्त्रीपूज्यागोचरे लोष्टद्वायन्यस्तपदः सुधीः ।।53॥
* विश्वामित्रस्मृति में कहा गया है कि सूर्योदय से पूर्व जबकि आकाश में तारे भरे हुए हों, उस समय
की सन्ध्या उत्तम, ताराओं के छिपने से सूर्योदय तक मध्यम और सूर्योदय के बाद की सन्ध्या अधम होती है- उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका। अधमा सूर्यसहिता प्रात:सन्ध्या त्रिधा स्मृता ।। • (विश्वामित्र. 1, 22) **तुलनीय-न मूत्रं पथि कुर्वीत न भस्मनि न गोव्रजे। न फालकृष्टे न जले न चित्यां न च पर्वते। न जीर्णदेवायतने न वल्मीके कदाचन ॥ न ससत्त्वेषु गर्तेषु न गच्छनापि च स्थितः । न नदीतीरमासाद्य न च पर्वतमस्तके ॥ (मनुस्मृति 4, 45-47 कूर्मपुराण उपरीभाग 13, 36-40, नारदपुराण पूर्व. 27, 57 एवं ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्म. 26, 19-24)