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तस्वार्थसार
अमृतमन्द्रसूरि किसके शिष्य थे और किस गुरुपरम्पराके थे, आदिका उल्लेख आपने अपने किसी भी ग्रंथमें नहीं किया है। ये बड़े निलित व्यक्ति थे। जहाँ हम कितने ही ग्रंथकारोंको बड़ी-बड़ी प्रशस्तियों एवं पुष्पिकावाक्यों के रूपमें आत्मप्रशंसाका उद्घोषक पाते हैं वहाँ अमृत चन्द्रसूरि यह भाव प्रकट करते है कि नाना प्रकारके दोंसे पद धन गये, पदोंसे वाक्य बन गये और वाक्योंसे यह बम बन गया, इसमें हमास कमी फर्तत्व नहीं है।' इन सब कारणोंसे इनके सही समयका निर्णय अनिश्चित रूप में चला आ रहा है परन्तु पं. परमानन्दजो शास्त्रीने अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४.५ में एक महत्त्वपर्ण सूचना दी है कि धर्मरत्वाकरके कर्ता जयसेन ने अपने धर्मरत्नाकर में अमसचन्द मुरिके परुषार्थसिद्धपायसे ५९ पद्य उद्धत किये हैं। धर्मरत्नाकर एक संग्रहपन्थ है, जिसे अन्धकारने अपने तथा दूसरे अनेक ग्रंथों के पद्योंका संग्रह कर मालाकी तरह रचा है और इसकी सूचना उन्होंने ग्रंथके अन्तिम अवसरमें निम्न प्रकार दी है
'इत्येतरुपनीलचित्र रचनः स्वरम्यदायरपि
भूतोऽवद्यगुणस्तथापि रचिता मालेव सेयं कृतिः । भावसेनके शिष्य जयसेन लाडबागड़संघके है तथा इन्होंने धर्मरत्नाकरको रचना १०५५ वि० संमें पूर्ण बी थी, ऐसा उसकी प्रशस्तिसे स्पष्ट है
वाणेन्द्रियग्योमसोममिसे संवत्सरे शुभे ।
__ ग्रन्थोऽयं सिद्धतां यातः सकलीकरहाटके ।। अर्थात् सकलीकरहाटक नगर में १०५५ शुभ संवत्में यह ग्रन्थ पूर्णताको प्राप्त हुआ।
इस उल्लेखसे तथा जनसंदेगके शोधांक ५ में प्रकाशित श्री पं० कैलाशचन्द्रजी के 'कुछ आचार्योक कालबामपर विचार' शीर्षक लेखसे सिद्ध होता है कि श्रीअमृतचन्द्रमूरि
१. वर्णैः कृतानि यित्रैः पदानि तु पदैः कृतानि वाक्यानि । वाक्यः कृतं पवित्र शास्त्रमिदं न पुनरस्माभिः ।। पु० सि. वर्णाः पदानां कर्तारो वाक्यानां तु पदावलिः । वाक्यानि चास्य शास्त्रस्य कतणि न पुनर्वयम् ।। त० सा० स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्त्वाख्या तैयं समयस्म शब्दैः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।। स० सा, पंचास्तिकाप व्याख्येयं किल विश्वमात्मसहितं व्याख्यातु गुम्फे गिरी। व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनो वल्गतु । वल्गत्वद्य विशुद्धबोषिकलपा स्यादादविद्याबलात् लम्बेक सकलात्मशाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुलः ।। प्र० सार