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तत्त्वार्थसार २. औपशमिक्षचारित्र-चारित्रमोहनीयकी समस्त प्रकृतियोंका उपशम होनेपर जो चारित्र प्रकट होता है उसे औपमिकचारित्र कहते हैं। यह ग्यारहवें गुणस्थानमें ही होता है। अन्तमुहूर्त के बाद इसका पतन नियम हो जाता है।
क्षायोपशमिकभावके भेव अज्ञानत्रितयं ज्ञानचतुष्कं पञ्चलब्धयः ।। ४ ।। देशसंयमसम्यक्त्वे चारित्रं दर्शनत्रयम् ।
क्षायोपशमिकस्यैते भेदा अष्टादशोदिताः ॥५ अर्थ कुमति, कुश्रुत और कुअवधि ये तीन अज्ञान मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पाँच लब्धियाँ, देशसंयम, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिकचारित्र तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शन सब मिलाकर क्षायोपशमिकभावके अठारह भेद कहे गये हैं।
भावार्थ-क्षयोपशम अवस्था ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धातियाकोंकी होती है। इन्हीं कमोंके क्षयोपशमसे ऊपर कहे हुए अठारह भाव प्रकट होते हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं
अज्ञानत्रय-मिथ्याल्बके उदयसे दूषित मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान, अज्ञानत्रय कहलाते हैं। इनके नाम कुमति, कुश्रुत और कुअवधि । दूसरेके उपदेशके बिना विष, यन्त्र, कूट, पञ्जर तथा बन्ध आदिक विषयमें जो प्रवृत्ति होती है उसे कुमतिज्ञान--मत्यज्ञान कहते हैं 1 वेद, भारत तथा रामायण आदिके परमार्थशून्य उपदेशको कुश्रुतज्ञान अथवा थुताज्ञान कहते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवके अवधिज्ञानको कुअवधिज्ञान अथवा विभङ्गज्ञान कहते हैं। इसके भवप्रत्यय विभङ्ग और क्षायोपशमिक विभङ्गके भेदसे दो भेद हैं। भवप्रत्ययविभङ्ग देव और नारकियोंके होता है तथा क्षायोपशमिक विभङ्ग मनुष्य और तिर्यञ्चोंके होता है । इस विभङ्गके ज्ञान द्वारा दूसरोंके अपकारको जानकर मारकी आदि जीव परस्परको कलहमें प्रवृत्त होते हैं।
ज्ञानचतुष्क-सम्यग्दृष्टि जीवके मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान ज्ञानचतुष्क कहलाते हैं। इनके लक्षण पहले लिखे जा चुके हैं। मतिज्ञानावरण, शुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानाबरणके क्षयोपशमसे ये चार ज्ञान प्रकट होते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ये तीन ज्ञान चतुर्थसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक होते हैं और मनःपर्ययज्ञान पष्ठ गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है ।