________________
१४२
तत्वार्थसार अर्थ-आठ शुद्धि तथा क्षमा आदि दश लक्षणोंसे युक धर्मके विषयमें जो अनुत्साह है वह सर्वज्ञ भगवानके द्वारा प्रमाद कहा गया है।
भावार्थ भाव, काय, विनय, ईपिथ, भैक्ष्य, शयनासन, प्रतिष्ठापन, और वाक्यके भेदसे शुद्धिके आठ भेद हैं । तया उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्यके भेदसे धर्मके दश भेद है। इन आठ प्रकारको शुद्धियों तथा दश प्रकारके धर्मोमें उत्साहका न होना प्रमाद कहलाता है ।।१०।।
पच्चीस कषाय पोडशैव कषायाः स्युनॊकपाया नवेरिताः ।
ईषद्धेदो न भेदोत्र कषायाः पञ्चविंशतिः ।।११।। अर्थ-सोलह कषाय और नौ नोकषाय कही गई हैं। इनमें जो थोड़ा भेद है वह नहीं लिया जाता है इसलिये दोनों मिलाकर पच्चीस कषाय पाहलाती है ।॥ ११ ॥
पग्रह योग चत्वारो हि मनोयोगा याग्योगानां चतुष्टयम् ।
पञ्च द्वौ च वपुर्योगा योगाः पञ्चदशोदिताः ॥१२॥ अर्थ-चार मनोयोग, चार वचनयोग और सात काययोग इस प्रकार सब मिलाकर पन्द्रह योग कहे गये हैं ।। १२ ।।
बन्धका लक्षण यज्जीवः सकषायत्वाकर्मणो योग्यपुद्गलान् ।
आदचे सर्वतो योगात् स बन्धः कथितो जिनः ।।१३।। अर्थ-जीब कषायसे सहित होनेके कारण कर्मोके योग्य पुद्गलोंको योगवश जो सब ओरसे ग्रहण करता है वह जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बन्ध कहा गया है।
भावार्थ-रलोकमें जो 'कर्मणः' पद आया है वह पञ्चमी और षष्ठी दोनों विभक्तियोंमें बनता है। पञ्चमी विभक्तिके पक्षमें श्लोकका यह अर्थ होता है कि जीव कर्मसे सकषाय होता है अर्थात् पूर्वाबद्ध कर्मको उदयावस्था होनेपर जीव कषायसे सहित होता है और षष्टी विभक्तिके पक्षमें यह अर्थ होता है कि जोव कषाय सहित होनेके कारण कर्मोक योग्य' अर्थात् कर्मरूप परिणमन करने वाले कार्मणवर्गणात्मक पुद्गलोंको ग्रहण करता है । तात्पर्य यह है कि कर्मका उपादानकारण पुद्गलद्रव्य है क्योंकि पुद्गलद्रव्य ही कर्मरूप परिणत होता है