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सप्तम अधिकार (निर्जरा तत्त्वका वर्णन )
मङ्गलाचरण अनन्तकेवलज्योति प्रकाशितजगत्यत्रान् ।
प्राणिपत्य जिनान्मूर्ना निर्जरातत्वमुच्यते ॥ १ ॥ अर्थ--अनन्त केवलज्ञानरूपी ज्योतिके द्वारा जिन्होंने तीनों लोकोंको प्रकाशित कर दिया है ऐसे जिनेन्द्र भगवान्को शिरसे नमस्कारकर निर्जरतत्त्वका कथन किया जाता है ।।१॥
निर्जराका लक्षण और उसके भेद उपात्तकर्मणः पातो निर्जरा द्विविधा च सा ।
आद्या विपाकजा तत्र द्वितीया चाविपाकजा ॥२॥ अर्थ-ग्रहण किये हुए कर्मका खिरना निर्जरा है। वह निर्जरा दो प्रकारको __ है—पहली विपाकजा और दूसरी अविपाकजा ॥ २ ॥
विपाकजा निर्जराका लक्षण अनादिबन्धनोपाधिविपाकवशवर्तिनः ।
कारब्धफलं यत्र क्षीयते सा विपाकजा ॥ ३ ।। अर्थ-अनादि बन्धरूप उपाधिके उदयवशवर्ती जीवका कर्म जिसमें अपना फल देता हुआ खिरता है वह विपाकाजा निर्जरा है।
भावार्थ-अनादि कालसे बँधे हुए कर्मोका निषेकरचनाके अनुसार अपना फल देते हुए खिरना विपाकजा निर्जरा है ।। ३ ॥
अविपाकजा निर्जराका लक्षण और दृष्टान्त अनुदीणं तपःशक्त्या यत्रोदीर्णोदयावलीम् । प्रवेश्य वेद्यते कर्म सा भवत्यविपाकजा ।। ४ ।। यथाम्रपनसादीनि परिपाकमुपायतः । अकालेऽपि प्रपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनाम् ॥ ५ ॥