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तत्त्वार्थसार और गण इन दश प्रकारके मुनियोंको बीमारी आदिके उपस्थित होनेपर अपनी शक्तिके अनुसार जो उनका प्रतीकार किया जाता है वह वैयावृत्त्य कहलाता है।
भावार्थ-'व्यावृत्तिः दुःस्त्रनिवृत्तिः प्रयोजनं यस्य तद् वैयावृत्य' अर्थात् दु:खनिवृत्ति जिसका प्रयोजन है उसे वैयावृत्त्य कहते हैं । यह वैयावृत्त्य आचार्य आदि दश प्रकारके मुनियोंका होता है इसलिये आश्रयके भेदसे वैयावृत्पतप भी दश प्रकारका माना गया है । आचार्य आदिके लक्षण इसप्रकार है
आचार्य-संघके अधिपतिको आचार्य कहते हैं। यह नवीन शिष्योंको दीक्षा तथा पुराने शिष्योंको प्रायश्चित्त आदि देकर पंचाचारका पालन करते कराते हैं।
उपाध्याय—जो संघमं पढ़ानेका काम करते हैं उन्हें उपाध्याय कहते हैं। साधु-जो संघमें रहकर अपना हित साधन करते हैं उन्हें साधु कहते हैं । शेषय-प्रमुखरूपसे विद्याध्ययन करनेवाले मुनि शंक्ष्य कहलाते हैं। ग्लान-रोगी मुनियोंको ग्लान कहते हैं ।
तपस्वी-पक्षोपवास तथा मासोपचास आदि करनेवाले मुनि तपस्वी कहलाते हैं।
कुल-दीक्षा देनेवाले आचार्योके शिष्य समूहको कुल कहते हैं।
सङ्घ-ऋषि, यति, मुनि और अनगार इन चार प्रकारके मुनियोंके समूहको सङ्घ कहते हैं।
मनोज-लोकप्रिय साधुओंको मनोज्ञ कहते हैं। गण-वृद्ध मुनियोंकी सन्ततिको गण कहते हैं ।। २७-२८ ॥
___ व्युत्सर्ग तपके दो भेद बाह्यान्तरोपवित्यागाद् व्युत्सगों द्विविधो भवेत् ।
क्षेत्रादिरुपधिर्वाह्यः क्रोधादिरपरः पुनः ।।२९।। अर्थ-बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहके त्यागसे व्युत्सर्गलप दो प्रकारका होता है । खेत आदिक वाह्य परिग्रह है और क्रोध आदिक आभ्यन्तर परिग्रह है ।। २२ ।।
विनय तपके चार भेद दर्शनज्ञानविनयौ चारित्रविनयोऽपि च ।
तथोपचारविनयो विनयः स्याच्चतुर्विधः ॥३०॥ अर्थ-दर्शनविनय, ज्ञानविनय, चारित्रविनय और उपचारविनयके भेदसे विनयतप चार प्रकारका होता है ।। ३० ।।