Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 234
________________ মামিদা १८१ प्रतिक्रमण और तनुभयका लक्षण अभिव्यक्तप्रतीकार मिथ्या मे दुष्कृतादिभिः । प्रतिकान्तिस्तदुभयं संसर्गे सति शोधनात् ।।२३।। अर्थ-'मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु' आदि शब्दोंके द्वारा जिसमें प्रतिकार प्रकट किया जाता है उसे प्रतिक्रमण कहते हैं ! स्वयं प्रतिक्रमण करना तथा गुरुजनोंसे संसर्ग होनेपर अालोचना करना नदभय कहलाता है !! २३ ॥ तप और व्युत्सर्गका लक्षण भवेत्तयोऽवमौदर्य वृत्तिसङ्ख्यादिलक्षणम् । कायोत्सर्गादिकरणं व्युत्सर्ग: परिभाषितः ॥२४॥ अर्थ-अवमौदर्य तथा वृत्तिपरिसंख्यान आदि तप हैं। और कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग कहा गया है ॥ २४ ॥ विवेक और उपस्थापनाका लक्षण अन्नपानौपधीनां तु विवेकः स्याद्विवेचनम् । पुनर्दीमाप्रदानं यत्सा घुपस्थापना भवेत् ॥२५॥ अर्थ अन्न, पान तथा औषध आदिका पृथक् करना विवेक है और फिरसे नई दीक्षा देना उपस्थापना है ।। २५ ।। परिहार और छेदका लक्षण परिहारस्तु मासादिविभागेन विवर्जनम् । प्रव्रज्याहापनं छेदो मासपक्षदिनादिना ॥२६॥ अर्थ---एक महीना आदिके लिये संघसे अलग कर देना परिहार है और एक मास, एक पक्ष. एक दिन आदिको दीक्षा कम कर देना छेद नामका प्रायश्चित्त है ॥२६॥ __ वैयावृत्त्य तपका लक्षण सू[पाध्यायसाधूनां शैत्यग्लानतपस्विनाम् । कुलसङ्घमनोज्ञानां वैयावृत्त्यं गणस्य च ॥२७॥ व्याध्याद्युपनिपातेऽपि तेषां सम्यग् विधीयते । स्वशक्त्या यत्प्रतीकारो वैशावृत्त्यं तदुच्यते ॥२८॥ अर्थ—आचार्य, उपाध्याय, साधु, बौक्ष्य, म्लान, तपस्वी, कुल, सङ्घ, मनोज्ञ

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