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सप्तमाधिकार होता है। प्रतिसेवनाकुशोल मूलगुणोंको विराधना न करता हुआ कदाचित् उत्तरगुणों को विराधना करता है। परन्तु कषायकुशील, निम्रन्थ और स्नातकोंके किसी प्रकारकी विराधना नहीं होती है। ___ तीर्थ-तीर्थंकरोंकी आम्नाय-धर्मप्रवर्तनको तीर्थ कहते हैं। सभी मुनि, सभी तीर्थकरोंके तीर्थ में होते हैं।
स्थान—कषायके निमित्तसे संबममें जो अवान्तर तारतम्य होता है उसे स्थान कहते हैं । सामान्यरूपसे ये स्थान असंख्यात्त होते हैं। इनमें पुलाक और कषायकुशीलके सर्वजघन्य लधिस्थान होते हैं। ये दोनों असंख्यात स्थानों तक एक साथ जाते हैं । इसके बाद पुलाक रह जाता है-आगे नहीं बढ़ पाता है । आगे कषायकुशील असंख्यात स्थानों तक अकेला जाता है। इससे आगे कषायकुशोल, प्रतिसेवनाकुशील और वकुश असंख्यात स्थानों तक एक साथ जाते हैं। वहाँ वकुश विछड़ जाता है--आगे जानेसे रुक जाता है। इससे भी आगे असंख्यात स्थान जाकर प्रतिसेवनाकुशील विड़ जाता है। इससे भी आगे असंख्यात स्थान जाकर कषायकुशील विछुड़ जाता है। इसके आगे कषायनिमित्तक स्थान नहीं है अकषाय स्थान हैं उन्हें निर्ग्रन्थ प्राप्त करता है। वह असंख्यात स्थानों तक जाकर विछुड़ जाता है। इसके आगे एक स्थान जाकर स्नातक निर्वाणको प्राप्त होता है।
उपपाद उपपादका अर्थ जन्म है । पुलाकमुनिका उत्कृष्ट उपपाद सहस्रार नामक बारहव स्वर्गके उत्कृष्ट स्थितिवाले देवोंमें होता है । वकुश और प्रतिसेवनाकृशीलका उत्कृष्ट उपपाद आरण और अच्युत स्वर्ग में बाईस सागरकी स्थितिवाले देवोंमें होता है । कषायकुशील और निर्ग्रन्थ (ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि ) का उत्कृष्ट उपपाद सर्वार्थसिद्धिमें तेतीस सागरकी स्थितिवाले देवोंमें होता है। इन सभीका जघन्य उपपाद सौधर्म स्वर्ग में दो सागरकी स्थितिवाले देवों में होता है । बारहवें गुणस्थानवर्ती निर्गन्ध तथा स्नातक केवली भगवानका निर्वाण ही होता है ।। ५९ ।।।
निर्जरातत्वका उपसंहार इति यो निर्जरातत्त्वं श्रद्धत्ते घेन्युपेक्षते ।
शेषतः समं षड्भिः स हि निर्माणमाग्भवेत् ॥६०॥ अर्थ-इस प्रकार शेष छह तत्त्वोंके साथ जो निर्जरातत्त्वकी श्रद्धा करता है उसे जानता है और उसकी उपेक्षा करता है वह निर्वाणको प्राप्त होता है । ६० ।। इस प्रकार श्रीअमृतचन्द्राचार्य द्वारा विरचित तस्वार्थसारमें निर्जरातत्त्वका
वर्णन करनेवाला सप्तम अधिकार पूर्ण हुमा ।