Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 242
________________ १८९ त দাদাগিদাৰ ततः क्षीणकषायस्तु घातिमुक्तस्ततो जिनः । दौते क्रमशः सन्त्यसंख्येयगुणनिर्जराः ॥१७॥ अर्थ-सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, संयत, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला, दर्शनमोहका क्षय करनेवाला, उपशमश्रेणीवाला, उपशान्तमोहग्यारहवें गुणस्थानवर्ती, क्षपकश्रेणीवाला, क्षीणकषाय-बारहवें गुणस्थानवर्ती और घातियाकर्मोसे रहित जिनेन्द्र भगवान ये दश क्रमसे असंख्यातगुणी निर्जरा करनेवाले हैं ।। ५५-५७ ॥ पाँच प्रकारके निर्ग्रन्थ मुनि पुलाको वकुशो द्वेधा कुशीलो द्विविधस्तथा । निग्रन्थः स्नातकश्चैव निग्रन्थाः पञ्च कीर्तिताः ॥५८॥ अर्थ–पुलाक, दो प्रकारके वकुश, दो प्रकारके कुशील, निर्ग्रन्थ, और स्नातक ये पांच प्रकारके निर्ग्रन्थ-मुनि कहे गये हैं । भावार्थ-जो उत्तरगुणोंकी भावनासे रहित हैं तथा कहीं कभी व्रतोंमें भी पूर्णताको प्राप्त नहीं होते ने तुच्छ धान्यो समान पुलाक कहलाते हैं। जो उत्तरगुणोंको भावनासे रहित है परन्तु व्रतोंकी पूर्णताको प्राप्त है अर्थात् जिनके मूलनतोंमें कभी दोष नहीं लगते वे वकुश कहलाते हैं। इनके शरीर वकुश और उपकरण वकुशकी अपेक्षा दो भेद हैं। जो शरीरको धूलि आदिसे रहित रखनेका राग रखते हैं बे शरीर वकुश हैं और जो अपने पीछी, कमण्डलु आदि उपकरणोंको उत्तम रखना चाहते हैं वे उपकरण बकुश हैं। ये दोनों प्रकारके मुनि शिष्यपरिवारसे सहित रहते हैं । कुशीलके दो भेद हैं-प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील ! जो शिष्यरूप परिग्रहसे सहित हैं तथा मूलगुण और उत्तरगुणोंसे युक्त होनेपर उत्तरगुणोंकी किसी तरह विराधना कर बैठते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं और जो मात्र संज्वलनकषायसे युक्त हैं वे कषायकुशील हैं। जिन्होंने मोहकर्मका सर्वथा क्षय कर दिया है और जो अन्तर्मुहूर्तके अनन्तर नियमसे केवली बननेवाले हैं ऐसे बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि निर्गन्य कहलाते हैं। जिन्हें घातियाकर्मोके नष्ट होनेसे केवलज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसे सयोग और अयोगके भेदसे दोनों प्रकारके केवली स्नातक कहलाते हैं ।।५८॥ पांच प्रकारके मुनियोंमें संपमादिका विकल्प संयमश्रुतलेश्याभिलिङ्गेन प्रतिसेवया । तीर्थस्थानोपपादैश्च विकल्प्यास्ते यथागमम् ॥१९॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285