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अष्टमाधिकार अर्थ-औपशमिक आदि भाव तथा भव्यत्वभावके क्षयसे सिद्धत्व, सम्य. कत्व, ज्ञान और दर्शनसे सुशोभित आत्माका मोक्ष होता है।
भावार्थ-मोक्षमें औपशमिक, क्षायोपमिक तथा औदयिकभाव और पारिणामित मागे भव्याज भाव हो शाता है : निन्नु क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन तथा सिद्धत्व भावका सद्भाव रहता है। क्षायिकज्ञानके सहभाबो क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यका सद्भाव भी रहता है।। ५॥
कर्मबन्धका अन्त होता है आधभावान्न भावस्य कर्मबन्धनसन्ततेः ।
अन्ताभावः प्रसज्येत दृष्टत्वादन्त्यबीजवत् ॥ ६॥ अर्थ-कर्मबन्धन सन्तति सम्बन्धी सद्भावकी आदिका अभाव होनेसे उसके अन्तके अभावका प्रसङ्ग नहीं आसकता, क्योंकि अन्तिम बीजके समान अनादि बस्तुका भी अन्त देखा जाता है ।
भावार्थ-यदि यहाँ कोई यह प्रश्न करे कि कर्मबन्धनकी सन्ततिकी जब आदि नहीं है तो उसका अन्त भी नहीं हो सकता तो उसका उत्तर यह है कि अनादि बस्तुका भी अन्त होता है। जैसे बीज अनादि कालसे चला आरहा है फिर भी उसके अन्तिम बीजका अभाव देखा जाता है ॥ ६ ॥
इसीको स्पष्ट करते हैं दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः ।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ।। ७॥ अर्थ-जिस प्रकार बीजके अत्यन्त जल जानेपर अङ्कर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्मरूपी बीजके अत्यन्त जल जानेपर संसाररूपी अङ्कर उत्पन्न नहीं होता ॥ ७॥
पुनः बन्धकी आशङ्का नहीं है अव्यवस्था न बन्धस्य गवादीनामिवात्मनः ।
कार्यकारणविच्छेदान्मिथ्यात्वादिपरिक्षये ॥८॥ अर्थ-गाय आदिके समान आत्माके बन्धकी अव्यवस्था नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व आदिका क्षय हो जानेपर बन्धरूप कार्यके कारणोंका विच्छेद हो जाता है।