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तत्त्वार्थसार
भावार्थ- कोई यह कहे कि जिस प्रकार गाय आदिको बन्धनसे छोड़ा जाता है और फिर भी लिया जाता है उसे प्रकार आत्मा बन्धन से मुक्त होता है और फिर भी बन्धनको प्राप्त हो जाता है सो ऐसी बात नहीं है क्योंकि कर्मबन्धके कारण मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं, इनका अभाव हो जाने से मुक्त जीवके फिर बन्ध नहीं होता है ॥ ८ ॥
जानना देखता बन्धका कारण नहीं है
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जानतः पश्यतथोर्द्ध जगत्कारुण्यतः पुनः । तस्य बन्धप्रसङ्गो न सर्वास्रवपरिक्षयात् ॥ ९॥
अर्थ - - मुक्त जीव, मुक्त होने के बाद भी करणापूर्वक जगत्को जानते तथा देखते हैं पर इससे उनके बन्धका प्रसङ्ग नहीं आता, क्योंकि उनके सब प्रकारके आस्रवोंका पूर्णरूपसे क्षय हो चुकता है ।
भावार्थ - जिस जीवके जानने, देखने के साथ मोह तथा राग-द्वेष आदिके विकल्प रहा करते हैं उसीके कर्मोका आस्रव और बन्ध हुआ करता है परन्तु मुक्त जीवके ऐसे कोई विकल्प नहीं रहते, इसलिये उनके जगत्को जानने देखनेपर भी बन्ध नहीं होता है ॥ ९ ॥
कारणके विना बन्ध संभव नहीं है
अकस्माच्च न बन्धः स्यादनिक्षिप्रसङ्गतः । बन्धोपपत्तिस्तत्र स्यान्मुक्ति प्राप्तेरनन्तरम् ॥ १० ॥
अर्थ - अकस्मात् विना कारण, मुक्त जीवके बन्ध नहीं होता, क्योंकि दिना कारण बन्ध माननेपर कभी मुक्त होनेका प्रसङ्ग ही नहीं आवेगा । मुक्तिप्राप्तिके बाद भी उनके चन्ध हो जावेगा ॥ १० ॥
स्थान से युक्त होनेके कारण मुफ्त जोवका पतन नहीं होता । पातोऽपि स्थानवत्वान्न तस्य नास्रवतच्चतः । आस्रवाद्यानपात्रस्य प्रपातोऽधो ध्रुवं भवेत् ॥ ११॥
अर्थ - मुक्त जीव स्थानवान् हैं इसलिये उनका पतन होना चाहिये, यह बात भी नहीं है क्योंकि उनके आसव तत्त्वका अभाव हो चुका है। लोकमें जहाजका आसव - जल आदिके आगमनके कारण हो नीचेको ओर निश्चितरूपसे पतन होता है ! भावार्थ -- जिस प्रकार घट, पट आदि पदार्द स्थानवान् है अर्थात् किसी स्थानपर स्थित हैं अतः कदाचित् उस स्थानसे उनका पतन भी हो जाता है