Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 262
________________ उपसंहार २०९ अर्थ — को परद्रव्यकी श्रद्धा करता है, परद्रव्यको ही जानता है और परद्रव्यके प्रति उपेक्षाभाव रखता है वह व्यवहारी मुनि माना गया है || || ५ ॥ निश्चयी मुनिका लक्षण स्वद्रव्यं श्रद्दधानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि । तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः ।। ६ ।। अर्थ --- जो स्वद्रव्यकी श्रद्धा करता है, स्वद्रव्यको जानता है और स्वद्रव्यके प्रति उपेक्षाभाव रखता है वह निश्चयनयसे श्रेष्ठ मुनि है ॥ ६ ॥ अभेदविवक्षासे षट्कारकोंका वर्णन आत्मा ज्ञातृतया ज्ञानं सम्यक्त्वं चरितं हि सः । स्वस्थो दर्शनचारित्र मोहाभ्यामनुपप्लुतः ॥ ७ ॥ अर्थ — जो दर्शनमोह और चारित्रमोहके उपद्रवसे रहित होने के कारण स्वस्थ है- अपने आपमें स्थिर है ऐसा आत्मा ही ज्ञायक होनेसे ज्ञान, सम्यक्त्व और चारित्र है । भावार्थ — यहाँ अभेदन की अपेक्षा गुणगुणीके भेदको गीणकर आत्माको ही सम्यक्त्वादिगुणरूप कहा गया है ॥ ७ ॥ पश्यति स्वस्वरूपं यो जानाति च चरत्यपि । दर्शन ज्ञान चारित्रत्रयमात्मैव स २७ स्मृतः ॥ ८ ॥ अर्थ- जो आत्मा स्वरूपको देखता है, जानता है और उसीमें चरण करता है वह आत्मा ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों रूप है अथवा ये तीनों आत्मा ही हैं ॥ ८ ॥ पश्यति स्वस्वरूपं यं जानाति च चरत्यपि । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ।। ९ ।। अर्थ - आत्मा अपने जिस स्वरूपको देखता है, जानता है और जिसका आचरण करता है वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र है, आत्मा ही इन तीनों रूप है ॥ ९ ॥ दृश्यते येन रूपेण ज्ञायते चर्यतेऽपि च । दर्शनज्ञानचारित्रत्रयमात्मैव तन्मयः ||१०||

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