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अपमात्रिकार
२०७ को उत्पत्ति श्नम, स्वेद, नशा, बीमारी और कामसेवनसे होती है तथा उसमें दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे मोहकी उत्पत्ति होती रहती है जबकि मुक्तजीवके यह सब संभव नहीं है ॥ ५०-५१ ।।
मुक्तजीयका सुख निरुपम है लोके तत्सदृशो ह्यर्थः कृत्स्नेऽप्यन्यो न विद्यते । उपमीयेत तयेन तस्मानिरुपमं स्मृतम् ।।५।। लिङ्गप्रसिद्धेः प्रामाण्यमनुमानोपमानयोः ।
अलिङ्गं चाप्रसिद्धं यत्तेनानुपमं स्मृतम् ।।५३।। अर्थ-समस्त संसारमें उसके समान अन्य पदार्थ नहीं है जिससे कि मुक्तजीवोंके सुखको उपमा दी जा सके, इसलिये वह निरुपम माना गया है । लिङ्ग अर्थात् हेतुसे अनुमानमें और प्रसिद्धिसे उपमानमें प्रामाणिकता आती है परन्तु मुक्तजीवोंका सुख अलिङ्ग है-हेतुरहित है तथा अप्रसिद्ध है इसलिये वह अनुमान और उपमान प्रमाणका विषय न होकर अनुपम माना गया
अर्हन्त भगवान्को आज्ञासे मुक्तजीवोंका सुख माना जाता है।
प्रत्यक्षं तद्भगवतामईतां से प्रभाषितम् ।
गृह्यतेऽस्तीत्यतः प्राज्ञेन च छमस्थपरीक्षया ।।४।। अर्थ- मुक्तजीवोंका वह मुख अर्हन्त भगवानके प्रत्यक्ष है तथा उन्हीके द्वारा उसका कथन किया गया है इसलिये 'वह है' इस तरह विद्वज्जनोंके द्वारा स्वीकृत किया जाता है, अज्ञानी जीवोंकी परीक्षासे वह स्वीकृत नहीं किया जाता।
भावार्थ-अर्हन्त भगवान्ने प्रत्यक्ष अनुभव कर मुक्त, जीवोंके सुखका निरूपण किया है इसलिये उसका सद्भाव माना जाता है ।। ५४ !|
मोक्षतत्त्वका उपसंहार इत्येतन्मोक्षतत्वं यः श्रद्धत्ते वेत्युपेक्षते ।
शेषतचैः समं पभिः स हि निर्वाणभाग्भवेत् ।।५।। अर्थ-इस प्रकार शेष छह तत्वोंके साथ जो मोक्षतत्त्वकी श्रद्धा करता है, उसे जानता है तथा उसकी उपेक्षा करता है अर्थात् रागद्वेषरहित प्रवृत्ति करता है वह नियमसे निर्वाणको प्राप्त होता है !! ५५।। इस प्रकार श्रीअमृतवन्द्रानार्य द्वारा विरचित तत्वार्थसारमें मोक्षतत्त्वका
वर्णन करनेवाला अपम अधिकार पूर्ण हुआ।