Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 259
________________ २०६ तस्वार्थसार लोके चतुविदार्थेषु सुखशब्दः प्रयुज्यते । विपरो वेदनामाने विपाके सोक्ष एवं च ॥४७॥ सुखो वह्निः सुखो वायुर्विषयेष्विह कथ्यते । दुःखाभावे च पुरुषः सुखितोऽस्मीति भाषते ||४८|| पुण्यकर्मविपाकाच्च सुखमिष्टेन्द्रियार्थजम् । कर्मक्लेश विमोक्षाच मोक्षे सुखमनुत्तमम् ||४९|| | अर्थ --- यदि कोई यह प्रश्न करे कि शरीररहित एवं अष्टकर्मो को नष्ट करने वाले मुक्तजीब के सुख कैसे हो सकता है तो उसका उत्तर यह हैं, सुनो। इस लोक विषय, बेदनाका अभाव, विपाक और मोक्ष इन चार अर्थों में सुख शब्दका प्रयोग होता है । जैसे अग्नि सुखरूप है, वायु सुखरूप है, यहां विषय अर्थ में सुखशब्द कहा जाता है । दुःखका अभाव होनेपर पुरुष कहता है कि मैं सुखी हूँ यहाँ वेदनाके अभाव में सुखशब्द प्रयुक्त हुआ है। पुण्यकर्मके उदय से इन्द्रियों के इट पदार्थोंसे उत्पन्न हुआ सुख होता है । यहाँ विपाक - कर्मोदयमें सुखशब्दका प्रयोग है । और कर्मजन्यक्लेशसे छुटकारा मिलनेसे मोक्षमें उत्कृष्ट सुख होता है । यहाँ मोक्ष अर्थ में सुखका प्रयोग है। भावार्थ - मोक्षमें मुक्तजीवके यद्यपि शरीर नहीं है और न किसी कर्मका उदय है तथापि कर्मजन्यक्लेशोंसे छुटकारा मिल जानेके कारण उन्हें सर्वश्रेष्ठ सुख प्राप्त होता है। सुख आत्माका स्वाभाविक गुण है परन्तु मोहादि कमौके उदयकाल में उसका स्वाभाविक परिणमन न होकर दुःखरूप वैभाविक परिणमन होता है। मुक्तजीवके इन मोहादि कर्मो का सर्वथा अभाव हो जाता है, इसीलिये उनके सुखगुणका स्वाभाविक परिणमन होता है। यही कारण है कि उनके समान सुख संसारमें किसी अन्य प्राणी के नहीं होता है ।। ४६-४९ ।। मुक्तजीवोंका सुख सुषुप्त अवस्थाके समान नहीं हैं सुप्तावस्थथा तुल्यां केचिदिच्छन्ति निर्वृतिम् । तदयुक्तं क्रियावच्चात्सुखातिशयतस्तथा ॥ ५०|| श्रमक्लेममदव्याधिमदनेभ्यश्च संभवात् । मोहोत्पत्तिर्विपाका दर्शनघ्नस्य कर्मणः ॥ ५१ ॥ अर्थ- कोई कहते हैं कि निर्वाण सुषुप्त अवस्थाके तुल्य है परन्तु उनका वैसा कहना अयुक्त है-टोक नहीं है क्योंकि मुक्तजीव क्रियावान् हैं जब कि सुषुप्तावस्था में कोई क्रिया नहीं होती तथा मुक्तजीवके सुखको अधिकता है जबकि सुषुप्त अवस्थामें सुखका रञ्चमात्र भी अनुभव नहीं होता । सुषुप्तावस्था

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