Book Title: Tattvarthsar
Author(s): Amrutchandracharya, Pannalal Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 250
________________ अटमाधिकार उसका संकुचित और विस्तृत होना बन्द हो जाता है ! मुक्त जीवका परिमाण अन्तिम शरीरसे कुछ न्यून रहता है। प्रश्न यह था कि जिस प्रकार शकोरा आदि बाह्य पदार्थका आलम्बन हटनेपर दीपकका प्रकाश फैल जाता है इसी प्रकार शरीरका आलम्बन हटने पर आत्मा लोकाकाशमें क्यों नहीं फैल जाता है। उसका उत्तर यह दिया गया है कि आत्मामें यद्यपि संकुचित और विस्तृत होनेको शक्ति है तथापि शरीर नामकर्मका अस्तित्व रहते ही वह शक्ति अपना कार्य कर सकती है उसके अभावमें नहीं। मुक्त जीवक चूंकि शरीरनामकर्मका अस्तित्व नहीं है इसलिये उनकी आत्माका लोकाकाशके बराबर फैल जाना संभव नहीं होता है ॥ १७-१८॥ मुक्तजीव, मुक्त होने के स्थानपर अवस्थित नहीं रहकर अध्वंगमन करते हैं कस्यचिच्छसलामोक्षे तत्रावस्थानदर्शनात् । ___ अवस्थानं न मुक्तानामूवव्रज्यात्मकत्वतः ।।१९।। अर्थ-किसी जीवकी, सांकलसे छुटकारा होनेपर उसी स्थानपर स्थिति देखी जाती है परन्तु मुक्त जीवका चूँकि ऊवंगमन स्वभाव है इसलिये कर्मबन्धनसे छुटकारा मिलनेपर उसी स्थानपर स्थिति नहीं रहती ।। १९ ।। ___भावार्थ-मुक्त जीवका ऊध्र्वगमन स्वभाव है इसलिये वह कर्मोसे मुक्त होते ही ऊपरको ओर गमन करता है । इसका यह गमन लोकके अन्त भाग तक होता है ! एक समयमें वहाँ पहुँच जाता है और उसके बाद अनन्त कालके लिये वहीं स्थिर हो जाता है ।। १९ ।। कर्मक्षयका क्रम सम्यक्त्वज्ञानचारिसंयुक्तस्यात्मनो भृशम् । निरास्रवत्वाच्छिमायां नवायां कर्मसन्ततौ ॥२०॥ पूर्वार्जितं क्षपयतो यथोक्तैः क्षयहेतुभिः । संसारत्रीजं कात्स्त्येन मोहनीयं प्रहीयते ॥२१॥ ततोऽन्तरायज्ञानघ्नदर्शनधनान्धनन्तरम् । प्रहीन्तेऽस्य युगपत्त्रीणि कर्माण्यशेषतः ॥२२॥ गर्भसूच्यां विनष्टायां यथा बालो विनश्यति । तथा कर्म क्षयं याति मोहनीये क्षयं गते ॥२३।। ततः क्षीणचतु:कर्मा प्राप्तोऽथाख्यांतसंयमम् । बीजबन्धननिर्मुक्तः स्नातकः परमेश्वरः ॥२४॥

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